सभ्यता का संकट और भारतीय बुद्धिजीवी/ किशन पटनायक
देश की समस्याएं जैसे – जैसे गहरा रही हैं और समाधान समझ के बाहर हो रहा है , वैसे – वैसे कुछ सोचनेवालों की नजर राजनीति और प्रशासन के परे जाकर समस्याओं की जड़ ढ़ूंढ़ने की कोशिश कर रही है । वैसे तो औसत राजनेता , औसत पत्रकार , औसत पढ़ा – लिखा आदमी अब भी बातचीत और वाद – विवाद में सारा दोष राजनैतिक नेताओं , चुनाव – प्रणाली या प्रशासन के भ्रष्ताचार में ही देखता है । लेकिन , क्या वही आदमी कभी आत्मविश्लेषण के क्षणों में यह सोच पाता है कि वह भी उस भ्रष्टाचार में किस तरह जकड़ा हुआ है । वह यह सोच नहीं पाता है कि वह भी उस भ्रष्टाचार में किस तरह जकड़ा हुआ है । वह यह सोच नहीं पाता कि किस तरह वह खुद के भ्रष्टाचार को रोक सकता है । कुछ लोग अपने को प्रगतिशील मानते हैं । वे कहीं-न-कहीं समाजवादी या साम्यवादी राजनीति से जुड़े हुए हैं । कुछ साल पहले तक ऐसे लोग जोश और जोर के साथ बता सकते थे कि आर्थिक व्यवस्था के परिवर्तन से सारी समस्याओं का समाधान हो जाएगा । पिछले वर्षों में उनका यह आत्मविश्वास क्षीण हुआ है । साम्यवादी और समाजवादी कई गुटों में विभक्त हो चुके हैं । उनकी राजनीति के जरिए तीसरी द