बाबा ने स्पीति की बारिश से सराबोर कर दिया

    curtsy :Google, key monastery 
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नौकरी से भारी ऊब वाले समय से जब एक बार फिर गुजर रहा हूं तो भागकर 'हिमालय' चले जाने का मन हो रहा है़. ऐसे में एक उनीदे से साप्ताहिक अवकाश वाले दिन अपने से करीब 800 किलोमीटर दूर हिमाचल की स्पीति घाटी को याद कर रहा हूं. उसकी कल्पना में खोया हूं. बाबा कृष्णनाथ की हिमालयी यात्राओं के पन्ने फिर से पलट रहा हूं. हम सब हिमालय को तपस्या की भूमि मानते हैं और तपस्या जीवन का आखिरी काम है. हालांकि 'हिमालय' भाग जाना मैं कहीं दूर चले जाने के संदर्भ में इस्तेमाल करता हूं. हिमालय भले ही क्यों न मेरे से हजार किलोमीटर दूरी पर ही हो.अवचेतन में धरती के आखिरी छोर पर है लेकिन बाबा की हिमालय यात्रा त्रयी से गुजरने के बाद मेरा दिल कम से कम 'की' मोनेस्ट्री या गोनपा पर तो आ ही गया है. 
यात्रा त्रयी का पहला हिस्सा ' स्पीति में बारिश' है. बाबा प्राकृतिक रूप से शुष्क स्पीति घाटी में बारिश खोजते हैं. वे यहां सराबोर हो जाते हैं ज्ञान की, स्नेह की, परंपरा की और मानवीय रिश्तों की बारिश से. इस दुर्गम हिमालयी हिस्से में बसी और संरक्षित बौद्ध संस्कृति की समृद्धि को हम सब तक लाते हैं. 
दूर-दुर्गम हिमालय की घाटियों से बाकी देश से कट गए संपर्क को फिर से जोड़ने की कोशिश करते हैं. बाबा के लिखे छोटे-छोटे वाक्य जादू की तरह असर करते हैं. अक्सर कहा जाता है कि छोटे वाक्य पाठन को नीरस बना देते हैं. बाबा के लिखे के साथ इसके उलट है. हां, ठहराव है. हम सरपट नहीं भाग सकते. तभी पढ़ सकते हैं जब मानसिक रूप से शांत चित्त हों. 
हिमालय यात्रा में वे कई तरह की प्रचलित कथाओं और मान्यताओं को साझा करते चलते हैं. लेकिन कहीं अपनी राय नहीं रखते. बस देखने, जानने-समझने से हासिल को दर्ज करते चलते हैं. इन सब के बीच अपने दार्शनिक अनुभव भी साझा करते हैं. हिमालय दर्शन का उनका एक अंदाज है. 
''शांत चित्त रोहतांग को देखता हूं.
बर्फ की फिसलन के बीच रास्ता है. हिम यहां मणि की तरह भास्वर नहीं है. मृत्यु की तरह धूसर है. जहां आकाश की छाया पड़ती है वहां नीला, बैगनी है. चाहे शब्द, अर्थ की वासना का आरोप हो, मुझे लगा कि हिमानी कब्रगाह है जहां अनाम शव बिछे हुए हैं. जिन पर न कोई 'क्रास' है, न पटिया. अनाम, अकाल मूरत, अजूनी. मरण स्मृति होती है. जो मर गए हैं उनकी स्मृति और उन सब शवों के आगे है मेरा शव. मैं अपने कंधे पर चढ़ अपना शव देखता हूं. शव स्थान देखता हूं. रोटांग देखता हूं. 

बाबा के लिखने में प्रवाह जितना सरल है उतना ही गहरा भी. आमतौर पर यात्रा वृतांत में भौगोलिक और कुछ परंपरा आदि का वर्णन होता है. यात्री सप्ताह, दस दिन के लिए जाता है और देखकर आ जाता है. लेकिन बाबा पर्यटक नहीं, बौद्ध धर्म और संस्कृति की खोज में गए थे. प्रचार-प्रसार के सिलसिले में गए थे. जिसके चलते उन्होंने ज्यादा गहराई से स्पीति घाटी की संस्कृति और समस्याओं को पकड़ा है. स्पीति घाटी का शेष भारत के साथ आवागमन वाला रिश्ता बहुत अच्छा कभी नहीं रहा. लेकिन बौद्ध धर्म के केंद्र तिब्बत से गहरा था. हुआ ये कि तिब्बत पर चीन के कब्जे और फिर भारत से युद्ध के बाद यह भी खत्म हो गया. अब लाहौल-स्पीति एक सांस्कृतिक शून्यता की स्थिति में आ गया है. उसकी जड़ें कट गई हैं. सांस्कृतिक नदी के प्रवाह हीन होने पर चर्चा हो रही है तो... हिमालय से निकलने वाली नदियों के वर्णन का जिक्र भी को बनता है. इन नदियों से सुंदप वर्तालाप लिखा है. शायद यह बातचीत स्थूल रूप में नदियों लेकिन पर अप्रत्यक्ष तौर पर सांस्कृतिक के नदी से हुई है. हिमालय की धुंध घाटियों से जो बौद्ध संस्कृति बह रही है. 

" विपाशा को देखता रहा। सुनता रहा। फिर जैसे सब देखना-सुनना सुन्न हो गया। भीतर-बाहर सिर्फ हिमवान, वेगवान, प्रवाह रह गया। न नाम, न रूप, न गंध, न स्पर्श, न रस, न शब्द। सिर्फ सुन्न। प्रवाह, अंदर-बाहर प्रवाह। यह विपाशा क्या अपने प्रवाह के लिए है? क्या इसीलिए गंगा, यमुना, सरस्वती, सोन, नर्मदा, वितस्ता, चंद्रभागा, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी की तरह विपाशा महानद है? पुण्यतमा है? क्या शीतल, नित्य गतिशील सिलसिले में ही ये पाश कटते हैं? विपाश होते हैं?"
बीच-बीच में नदियों की पर गढ़ी गई कथा भी कहते चलते हैं. यह कहानी चंद्र और भागा नदियों के बारे में है. 
कहा जाता है कि सूरज का बेटा भागा और चंद्रमा की बेटी चंद्र एक दूसरे को चाहने लगे थे. ब्याह करने की गरज से बरालाचा दर्रे पर उतरे. किसी कारणवश दोनों ने उल्टी दिशाओं में चलने और तांदी में मिलकर विवाह करना तय किया. ढलान की वजह से चंद्र पहले पहुंच गई तो वह आगे बढ़ी और केलंग में दोनों की मुलाकात हुई. दोनों साथ-साथ तांदी आए और यहां संगम हुआ. 


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