...दुनिया इतनी भी बुरी नहीं है अभी

मैं कई दिन से सोच रहा हूं कि हर दिन काम करते हुए इतनी सारी न्यूज पढ़ी जाती हैं। सीरिया में बम फूट गए, अमेरिका में मॉस शूटिंग हो गई। कोई दो देश धोती खुंटियाए जंग करने पर आमादा हैं। बहुत कुछ ऐसा होता है। हम दुनिया को संवेदनशील होने का पाठ पढ़ाते हैं और खुद अपनी संवेदना गंवाते जा रहे हैं। कई बार यह भी लगता है कि हमारी संवेदना थक गई है। कोई इस बात पर आपत्ति जाहिर कर सकता है कि क्या संवेदना भी थक सकती है ? लेकिन मुझे तो ऐसा ही लगता है। कई बार खबरें पढ़कर आंखें थोड़ी भी नम हो जाती हैं।

ऐसी ही एक खबर मिली न्यूयॉर्क टाइम्स पर। यह समाचार पूर्वी जर्मनी के एक गांव गोल्जओ का है। कभी कम्युनिस्ट शासन के अंतर्गत रहे पूर्वी जर्मनी का यह गांव भी बाकी हिस्सों की तरह विस्थापन की मार झेल रहा है। साल 2015 में जब शरणार्थी संकट अपने उफान पर था। सीरिया से हजारों की संख्या में लोग जर्मनी में शरण पाने की कोशिश कर रहे थे तो गोल्जओ में भी 16 सीरियाई परिवारों को स्थानीय मेयर ने बसाया। शुरुआत में स्थानीय लोगों ने नाक भौं सिकोड़ी। लेकिन जल्द ही उन्होंने स्वीकार कर लिया। यहां के स्थानीय स्कूल में पहली कक्षा में जाने वाले एक भी बच्चे नहीं रह गए थे। लेकिन सीरिया से अपने माता-पिता के साथ आए कमला, बुरहान, हमजा, नूर, तस्नीम, रिताज, रतीफ, रोआ, बड़े मोहम्मद, छोटे मोहम्मद ने इस बंद होने के कगार पर पहुंचे स्कूल को फिर से गुलजार कर दिया। स्कूल के प्रधानाध्यापक को कोई झाडू लगाने को नहीं मिलता था। यहां के खाली पड़े अपार्टमेंट्स में चहलपहल रहने लगी है। अब ये बच्चे यहां मछली पकड़ना सीख रहे हैं, तैरना सीख रहे हैं। जर्मन बुजुर्गों को ओपा कहते हैं। जिसका मतलब दादा होता है। यह खबर बनाते हुए मैं अंगुलियां रोककर सोचने लगा, दुनिया इतनी भी बुरी नहीं अभी। आंखों का पानी अभी बचा हुआ है।

एक दूसरी कहानी यूगांडा से है। पिछले साल जब अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप शरणार्थियों को प्रवेश से रोकने के लिए सेना तैनात करने की धमकी दे रहे थे उस समय अफ्रीका का बेहद गरीब देश यूगांडा दूसरे अफ्रीकी देशों जैसे कि लीबिया आदि से विस्थापित शरणार्थियों का बांह फैलाकर स्वागत कर रहा था। उत्तरी यूगांडा में दुनिया के सबसे बड़े शरणार्थी कैंप का प्रबंधन करने वाले सुलैमान ओसाकन का इस जेनोफोबिया के युग में एकदम से जुदा दृष्टिकोण है। न्यूयॉर्क टाइम्स ने उनके हवाले से लिखा कि यहां शरणार्थियों को थोड़ी सी जमीन आवंटित की जाती है ताकि विस्थापित लोग घर बना सकें और अपनी जरूरत की चीजें पैदा कर सकें। यहां शरणार्थी बस्तियों में रहते हैं। संयुक्त राष्ट्र का आंकड़ा कहता है कि युगांडा की धरती पर करीब 12.5 लाख शरणार्थी रहते हैं। ऐसा नहीं है कि सरकार ने जबरन लाकर बसा दिया है। यह भी काफ दिलचस्प है कि सरकार ने राष्ट्रीय नीति तैयार की है, जिसके अनुसार शरणार्थी किसी गांव में तभी रह सकते हैं जब उस गांव के लोग चाहेंगे।  दिल को छू लेने वाली बात तो एक 27 साल के युवा चार्ल्स अजामुके कहते हैं। चार्ल्स के शब्दों में, हमारा गांव गृह युद्ध से बिखर गया था। हम इन लोगों को पाकर खुश हैं। ये हमारे भाई हैं। जबकि बुजुर्ग युगांडावासी कहते हैं कि गृह युद्ध के दौरान वे लोग भी विस्थापित हुए थे। कहीं शरण लिए थे। हम सब किसी विस्थापित का दर्द समझते हैं।



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