पुराने भूमि अधिग्रहण कानून पर वापसी


देश में धर्म परिवर्तन और घर वापसी जैसे जुमलों के शोर के बीच मोदी सरकार ने एक और बिल को अध्यादेश के माध्यम से चुपके से पारित करा लिया   मोदी सरकार ने विगत 6 महीनों में सात बिल अध्यादेश के सहारे पारित करा चुकी है, जबकि पिछले वर्ष यू पीए सरकार के दौरान भाजपा नेता अरुण जेटली नें अध्यादेश को विधायी शक्तियों का हनन कहा था, लेकिन जब वे खुद सत्ता में आये तो अब अध्यादेश को  देश के विकास के लिए आवश्यक बता रहे है, 
                        और तो और  भूमि अधिग्रहण क़ानून 2013  को पिछली सरकार के कार्यकाल में  पारित कराने के  हुई बहस में भाजपा नेता सुषमा स्वराज और अरूम जेटली दोनों सम्मलित थे और इनके द्वारा  
दिए गए सुझावों को शाामिल भी किया गया था, लेकिन सत्ता में आते ही उसी कानून को परिवर्तित कर दिया। 
                   मोदी सरकार ने पुराने भूमि अधिग्रहण को बदलते हुए नए कानून में चार एसी श्रेणियां बनाई हैं जिसमें अधिग्रहण के लिए न तो किसी पूर्व निर्धारित अधिग्रहण की आवश्यकता होगी और ना ही किसी प्रकार के सामाजिक प्रभाव का आकलन किया जाएगा, इसके अंतर्गत औद्योगिक कारिडोर तथा रक्षा उत्पादन ग्रामीण ढाचागत विकास के क्षेत्र शामिल हैं.
                 सरकार ने 1894 के भूमि अधिग्रहण कानूून पर वापसी करते हुए जनता के अधिकारों में नए संशोधन के माध्यम से पर्याप्त कटौती की है, इसमेें सरकार ने जनता द्वारा अधिग्रण से पूर्व सहमति का प्रतिशत घटा दिया जबकि संशोधन पूर्व कानून में यह प्रावधान किया गया था कि किसी भी प्रकार के अधिग्रहण से पूर्व 70-80 प्रतिशत लोगों की सहमति आवश्यक थी वहीं अब इसे 40-50 प्रतिशत कर दिया गया है.
            1894 के भूमि अधिग्रहण कानून में भी सामाजिक प्रभाव के आकलन की भी कोई व्यवस्था नहीं थी और न ही आम जन को यह तय करने का अधिकार दिया गया था कि उसकी भूमि का उपयोग किस तरह किया जाए इसीलिए 2013 के भूमि अधिग्रहण कानून में सामाजिक प्रभाव आकलन का प्रावधान किया था इसे लागू करने पीछे ठोस तर्क यह था कि पूर्व में शक्ति के बल पर और दमन करके भूमि अधिग्रहण किया जाना रूकेगा.
          इसमें आम जन को यह अधिकार दिया गया था कि भूमि की कीमत के संबंध में अपनी बात रख सकता है, एक बार फिर से कलेक्टर को यह विशेषाधिकार प्राप्त हो गया कि वह तय कर सकता कि भूमि अधिग्रहण का उद्देश्य क्या है तथा कितनी जल्दी भूमि अधिग्रहण करनी है. इस बदलाव से भ्रष्टाचार में वृद्धि होगी और जनता का शोषण बढ़ेगा. कलेक्टर या उससे उच्च अधिकारी अपने पद का दूरपयोग करेंगे क्योंकि 2013 के अधिग्रहण कानून से पहले कई ऐसे मामले सामने आ चुके हैं जिसमें अधिग्रहण के लिए कलेक्टर या उससे उच्च अधिकारियों ने आवश्यकता से अधिक तत्परता दिखाई.
     हालांकि 2013 के कानून में भी कुछ विशेष परियोजनाओं को सामाजिक आकलन तथा सहमति से अलग रखा गया था  यह मानते हुए कि कुछ परियोजनाएं अन्यों कि तुलना में अधिक महत्व वाली होती हैं, इनको अलग श्रेणी में रखा गया था. जैसे राष्ट्रीय राजमार्ग, परमाणु उर्जा, बिजली परियोजनाएं आदि. इसी प्रकार राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए भूमि अधिग्रहण को तत्कालिकता के प्रावधानों के अंतर्गत छूट थी.
       लेकिन सरकार द्वारा इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं के लिए अलग से श्रेणियां बनाना समझ से परे दिखता है जिसमें उन्हें सहमति की अनिवार्यता से मुक्त रखा गया है जो कि बेहद हैरान करने वाला है क्योंकि इसके कारण बहुत बड़े पैमाने पर खेती योग्य जमीनों का अधिग्रहण किया जाएगा और रियल स्टेट का कारोबार बहुत तेजी से बढे़गा.
      नया कानून खाद्य सुरक्षा संकट भी पैदा करेगा, वैसे भी ये देश के सामने खेती योग्य जमीनों का घट रहा रकबा एक गंभीर समस्या है.यह संशोधन देश के लिए खाद्य सुरक्षा संकट और शोषण के गुजरे दौर में देश को वापस ले जा सकता है।

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