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जनवरी, 2016 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

कौन था वह

कौन था वह, जिसने सबसे पहले धरती की छाती पर टैटू गोदा होगा, उगाया उन रेखाओं पर  नफरत की नागफनी, कितना सींचा होगा लहू से, फिर बना होगा एक एक कबीला, ऐसे ऐसे कितने कबीले बने होंगे, सब अपनी नींव नरमुंडों पर ही खड़ी किए होंगे ! कबीले कब देश हो गए पता ही नहीं चला, फिर बनाया सबने एक एक झंडा लगाया उसमें एक बड़ा सा डंडा | झंडे का आकार बढ़ता गया इंसानों के शरीर से कपड़ा उतरता गया, वह जब भी ठिठुरते हुए कपड़े के लिए चीखता, एक बड़ा झंडे वाला डपटता तू देशद्रोही  तुझे झंडे का सम्मान नहीं आता |

मेरे ख्वाब‬

‎ ख्वाब हैं मेरे फाहे जैसे उन्हें संजोने की जुगत करता हूं मैं कैसे कैसे जब होता हूं सफर में उन्हें जेब में रख लेता हूं सोता हूं तो हौले से सिरहाने तकिए के नीचे रखकर ही झपकी लेता हूं जब मैं सोने की कोशिश करता हूं सारे सपने जग जाते हैं कोई टांग खींचता कोई चद्दर सब एक साथ चीखते नहीं है कोई मुकद्दर चल उठ जा बेटे बन जा तू अब सिकंदर ख्वाब हैं मेरे फाहे जैसे कहीं बिखर ना जाएं डरता हूं अंदर अंदर

Steve McCurry की नज़र से भारत

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भारत को कवियों, लेखकों, इतिहासकारों सब ने अपने अपने नजरिए से देखा और दुनिया को बताया। इन्हीं देखने वालों में से एक थे स्टीव मैक्करी। इस महान लेेंसमैन ने कैमरे की आंख से जो कुछ देखा वह निश्चित तौर अभीभूत कर देता है। कितने चटख रंग, जीवांतता  और सामान्य जीवन का दस्तावेज है इनका काम। स्टीव मैक्करी ने यह फोटोग्राफ 1983 में क्लिक किया था । यह आगरा का  आगरा फोर्ट स्टेशन और पीछे जामा मस्जिद है । इसे भी 1983 में ही क्लिक किया गया था। यह फोटोग्राफ सिर्फ एक चित्र नहीं है। इसमें बदलते दौर की एक कहानी भी छिपी है । एक यात्रा जो निरंतर जारी है।   यह राजस्थान है। इसे भी 1983 में ही क्लिक  किया था । सुबह पानी की गागर लेकर हर घर से औरतें निकलती थी तो पनघट से घर तक की दूरी उनकी मुक्ति का समय होता था। यह होली के समय का राजस्थान है (2007 ) Add caption यह बंगाल है (1983 ) (1982 ) यह कश्मीर है । साल 1999  बनारस 

माफ करना दोस्त हम सब तुम्हारे गुनहगार हैं

कल शाम को जब से यह पता चला कि, हैदराबाद विश्वविद्यालय से निष्काषन झेल रहे पांच दलित छात्रों में से रोहित वेमुला ने दुनिया छोड़ने का फैसला कर लिया तब से मन उदास है | समझ नहीं आ रहा इसपर क्या प्रतिक्रिया व्यक्त करूं | चीखूं, चिल्लाऊं या कुछ  और करूं... इस कदम के लिए रोहित को कायर कहूं या बहादुर |  मेरी नजर में आत्महत्या करना हमेशा से एक कायराना कृत्य रहा है, लेकिन रोहित को न तो कायर कहते बन रहा और न ही विद्रोही | दोस्त रोहित तुम कायर तो नहीं थे क्योंकि तुमने अधिकारों के लिए शोषण के खिलाफ आवाज बुलंद की | विद्रोही इसलिए नहीं कह सकता क्योंकि तुम सब शांति से हास्टल खाली कर सड़क पर आ खुले आसमान के नीचे आ गए | सच तो यह है कि तुम जैसे लोग फूल जैसे होते हैं, जो तोड़ने वाले के हाथ में भी नहीं चुभते | बस हर जगह अपनी खुशबू बिखेर रहे होते हैं | दोस्त रोहित तुम जैसे लोगों को यह सिस्टम और ब्राह्मणवादी समाज नही न तो समझता है और न ही इसकी कोशिश करता है| तुम्हें समझना इस देश के शिक्षण संस्थानों के बस की बात नहीं दोस्त | सबकी आंखों पर वर्गभेद का पर्दा पड़ा | उन्हें तुम्हारे सपने दिखा

‘मालदा’ लिटमस टेस्ट का शिकार तो नहीं !

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  चुनाव के चौाखट पर खड़े मालदा के कलियाचक कस्बे में अचानक हुई हिंसा के बाद से राजनीतिक गलियारों में भी गहमागहमी बढ़ गई है। हर घटना की तरह इस बार भी अराजकता की  आंच पर स्वार्थ की रोटियां सेंकी जा रही हैं। घटना के कारणों के तह में जाएं तो सरसरी तौर पर इसका कारण पैगम्बर मोहम्मद साहब पर  हिन्दू महा सभा के नेता कमलेश तिवारी द्वारा  की गई टिप्पणी को माना जा रहा। जिसके कारण लगभग पूरे देश में विरोध का सुर दिखाई पड़ा। बताया गया कि मालदा में लगभग ढ़ाई लाख मुस्लिम सडक़ों पर उतरे। इसे एक सिरे से  स्व स्फूर्त  आक्रोश मानना मुश्किल है। इतनी बड़ी भीड़ इकठ्ठा  करने के लिए निश्चित तौर पर किसी न किसी ने योजना बनाई होगी।  अन्य कारणों में बताया गया कि मालदा  और और आसपास बड़े पैमाने पर ड्रग माफियाओं द्वारा गांजा और अफीम की खेती कराई जाती है। जिसको बीएसएफ और नार्कोटिक्स ने मिलकर नष्ट करने का अभियान चलाया। इससे व्यथित होकर माफियाओं ने मालदा की पूरी साजिश रची। हालांकि दोनों में से कोई भी कारण अभी तक पुख्ता नहीं हो सका है। ऐसे में सवाल है कि कौन था वह शख्स या संगठन, उसका पता लगाया जाना चाहिए, लेकिन ऐसा

मकबूल फि़दा हुसैन से एक संक्षिप्त मुलाकात

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'' पाँच हज़ार सालों से हिंदुस्तान की कला चल रही है। बीच में कैसे-कैसे लोग आए। कुछ हुआ है ! कभी नहीं हुआ, जऱा सा भी नहीं हुआ। अजंता जैसी गुफ़ाओं  में क्या-क्या है, उसका मुक़ाबला है कोई। कला कभी नहीं रुक सकती। '' भारत के पिकासो मक़बूल फि़दा हुसैन ने भले ही दुनिया को अलविदा कह दिया हो पर उनको भारतीय चित्रकला को देश से बाहर ले जाने के लिए हमेशा याद किया जाता रहेगा। उन्होनें अकूत शोहरत और दौलत कमाई तो उनके दामन से विवादों का भी लगाव रहा। चित्रकार होने के साथ-साथ वे फि़ल्मकार भी रहे। मीनाक्षी, गजगामिनी जैसी फि़ल्में बनाईं। उनका माधुरी प्रेम तो ख़ासा चर्चा में रहा ।  इंटरनेट की दुनिया में भटके-भटकते एक दिन बीबीसी पर मकबूल साहब का इंटरव्यू हाथ लग गया, तो सोचा क्यों न इसे संजो लिया जाए।  यह संक्षिप्त इंटरव्यू बीबीसी पत्रकार वंदना ने साल 2011 में लंदन स्थित उनके अपार्टमेंट पर लिया था। एमएफ़ हुसैन क्या कर रहे हैं इन दिनों? भारत में तो लोगों को आपको दीदार नहीं होते। यहाँ लंदन में आपसे मुलाक़ात हो रही है? नहीं ऐसी बात नहीं है, जहाँ भी रहता हूँ पेंटिंग करता रहता ह

हुसैन और उनका तिरंगा व्यक्तित्व...

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राजेश प्रियदर्शी हुसैन में कुछ रंग ख़ालिस थे, कुछ मिलावटी. पेंटर यूँ भी कई रंगों को मिलाकर नया रंग तैयार करते रहते हैं। वे अनूठे रंगसाज़ थे और गज़ब के रंगबाज़ भी थे। भारत में कामयाब आदमी को पूजने या उन पर थूकने की रीत नई नहीं है, जो ग़ैर-परंपरागत तरीक़े से कामयाब होते हैं उनके साथ ऐसा अधिक होता है।  हुसैन बेहतरीन कलाकार, पीआर मैनेजर और सेल्समैन तीनों एक साथ थे, और ख़ूब थे। ऐसा अदभुत संयोग कम ही देखने को मिलता है, और इन तीनों में किस में उन्नीस और किस में बीस थे, कहना मुश्किल है।  भारत का छोटा सा बच्चा भी सिंदूर पुते हुए पत्थर को देखते ही समझ जाता है कि यह हनुमान है, यह है प्रतीकों की ताक़त जिसका मैं इस्तेमाल करता हूँ । ये तीन अलग-अलग रंग हैं, हुसैन ने इन तीनों को इस तरह मिला दिया कि कहना मुश्किल हो गया कि कौन कहाँ शुरू होता है और कहाँ ख़त्म होता है। यही है हुसैन का जिनियस, बाज़ीगरी, कलात्मकता या चालबाज़ी, आप जो चाहे कहें।  महाभारत पेंटिंग  हुसैन को समझने के लिए इन तीनों रंगों को मिलाकर, और कई बार अलग करके देखना होगा, फिर भी ज़रूरी नहीं है कि हम इस तिरंगे

पब्लिक में इज्जत का ये कैसा पैमाना अरविंद भईया ?

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भईया अरविंद आपने तो अरुण जेटली की मानहानि के मामले में तो कमाल ही कर दिया । अदालत में आपने खुद के बचाव में जो दलील पेश किया उसे सुनकर थोड़ी देर हंसी तो आई पर यह ज्यादा देर ठहर नहीं सकी। दरअसल आपने कोर्ट को जो लिखित में कहा कि अरुण जेटली एक  लाख वोट से लोकसभा चुनाव हार गए हैं, इसलिए उनका कोई मान नहीं है। यह बात गले के नीचे उतरने लायक नहीं है। एक बात बता दूं कि मैं न तो जेटली भक्त हूं, न बीजेपी भक्त और मोदी भक्त तो हो ही नहीं सकता। भक्त आपका भी नहीं हूूं, पर हां थोड़ी इज्जत करता हूं, थोड़ा भरोसा कायम है। तो आपकी दलील गले के नीचे नहीं उतर रही क्योंकि देखिए अब इसी  को इसी को किसी की छवि का पैमाना मानें तो डॉ. भीमराव अंबेडकर भी चुनाव हारे थे, पर देश उनका सम्मान आज भी करता है। उनके मान में तो कमी नहीं आई। पं. नेहरू के सामने इलाहाबाद की फूलपुर सीट से देश के धुरंधर समाजवादी डॉ. राम मनोहर लोहिया खड़े हुए थे। लोहिया बहुुत बुरी तरह हारे थे। पर आज भी चाहे दक्षिण पंथी हो, वाम पंथी हो या कांग्रेस हो किसी ने कभी लोहिया पर अंगुली उठाने की हिमाकत नहीं की। इन सबके अलावा पं. अटल

कुछ-कुछ अनछुआ सा...

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कभी नदी के उन किनारों पर घूमिए जहां लोग न जाते हों, बेहद खूबसूरत दुनिया बसती है l   पेड़ों से उगने वाली नन्ही कोपलें ही शाखाएं बनती हैं...    रेखाएं ...  कुछ-कुछ अनछुआ सा

क्योंकि इंसान जो हो

यूं ही फिसलती जाएगी जिंदगी बनती जाएंगी नई तस्वीरें कुछ बेसुरे सुर-ताल फूटेंगे कविताएं खुदकुशी कर कहानियां बन जाएंगी एक दिन वे भी मोटे जिल्द वाली किताबों में दफ्र हो जाएंगी फिर आएंगे ख्वाब उम्र भर एक दिन वे ख्वाब भी डरावने हो जाएंगे क्योंकि तुम इंसान जो हो उन्हें बीच में ही तोड़ के उठ जाओगे फिर बनाओगे एक मुस्कराती तस्वीर लोगों के लिए वह रहस्य होगी तुम्हरे लिए इंद्र धनुषी ख्वाब ऐसा तुम बार-बार नहीं हजार बार करोगे बस करते जाओगे एक दिन तुम और तुम्हारी तस्वीर दोनों दुनिया के लिए रहस्य बन जाओगे पर जल्द ही ऊबोगे इन तस्वीरों और ख्वाबों से क्योंकि इंसान जो हो कुछ नए ख्वाब, कुछ नए रंगों के लिए भागोंगे पर चारो तरफ घना अंधेरा होगा इस जंगल में खुद को अकेला पाओगे

...चले आना

मैनेें गुनगुनी धृूप को कैद कर रखा है जब भी अंधेरा घेरे चले आना कोई रिश्ता नहीं तो क्या कुछ तुम गुनगुनाना कुछ बेसुरा हम गाएंगे दोनो मिलकर कोई नई तान छेडेंगे घर  जैसा कोई ढ़ांचा नहीं तो क्या क्षितिज की छत के नीचे नर्म दूब पर बैठकर अपने-अपने अतीत में खो जाएंगे

बचा लो यह रात

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शौचालय नहीं तो चुनाव लड़ने का अधिकार नहीं ? पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है ?

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जिसके घर में शौचालय नहीं होगा, वह चुनाव नहीं लड़ सकता। मतलब अब शौचालय न होने  पर नागरिकता का एक अधिकार छिन जाएगा। क्या किसी को शौक लगती है अपने बहू-बेटियों को खुले में शौच भेजने की या महिलाएं हवा खाने खेतों में जाती हैं ? इन्हें पता नहीं कि जिनको जिंदगी में कभी छप्पर छोड़ छत नसीब नहीं होती, फसलें खराब होने पर आत्महत्या करनी पड़ती है वह कैसे शौचालय बनवाएगा ? उसकी पूरी जिंदगी निकल जाएगी शौचालय बनवाने के लिए एक एक रूपए जोडऩे में। आधा-अधूरा जो शौचालय बनवाने के लिए देती है, दस-बीस हजार उसमें कौन सा शौचालय बनता है ? कभी देश-प्रदेश की राजधानियों में बैठे नीति नियंता लोगों ने इसके बारे में भी सोचा है  ? दूसरी बात अब शौचालय होना ही जनसमर्थन की पहली पहचान होगी? इसके पहले अलग-अलग राज्यों में ग्राम पंचायत चुनाव में न्युनतम शैक्षिक योग्यता लागू की गई। लागू करने वालों से बस एक ही सवाल है, क्या भारत में शत-प्रतिशत साक्षरता दर हो गई है ? जो यह लागू किया जा रहा। कौन मां-बाप चाहेगा कि उसकी संतान अंगूठा टेक हो। हर कोई आगे बढऩा चाहता है, एक तुम्हीं नहीं हो सरकार, ज