एक नदी की सांस्कृतिक यात्रा और जीवन दर्शन का अमृत है 'सौंदर्य की नदी नर्मदा'

यात्रा वृतांत पढ़ना कुछ हद तक उस स्थिति में तृप्ति दायक है जब यात्राएं करना किसी वजह से संभव न हों। पढ़ते वक्त शारीरिक न सही पर मानसिक रूप से लेखक के साथ पाठक भी यात्रा तो कर ही रहा होता है। 'सौंदर्य की नदी नर्मदा' ऐसा ही एक यात्रा वृतांत है, जिसमें अमृतलाल वेगड़ मध्य और पश्चिम भारत को सींचने वाली हिमालय से भी पुरानी नदी नर्मदा के तट की परिक्रमा पर ले जाते हैं। मन और कर्म से कलाकार वेगड़ जी ने नमर्दा के अनुपम सौंदर्य का चित्र शब्दों के जरिए खीचा है। किस तरह नर्मदा ने अपने जल से पत्थरों कों हजारों वर्ष में तराश कर मॉर्डन शिल्प में बदल दिया है, खिले हुए फूल की तरह झरने, सब कुछ उन्होंने रंग और ब्रुश की बजाए कलम से चित्रित किया है। एक और बात, यह वृतांत सिर्फ नमर्दा के स्थूल सौंदर्य का वर्णन भर नहीं बल्कि सांस्कृतिक दस्तावेजीकरण भी है।

वेगड़ जी के यात्रा वृतांत से पहले तो किताब शुरू करते ही उसकी भूमिका का रसास्वादन मिलता है। मोहनलाल वाजपेयी जी ने क्या खूबसूरत भूमिका लिखी है। वे भूमिका में लिखते हैं, विचित्र नहीं यदि ऐसी अद्वितीया, पुण्योत्मा, शिव की आनंद विधायिनी, सार्थक नाम्ना श्रोतवाहिनी की परिक्रमा करने केलिए युग युग से पुण्यार्थी लालायित रहते हैं। और तो किसी नदी की परिक्रमा नहीं की जाती। वे पूछते हैं कि वह कौन  सी अदम्य प्ररेणा है जो निपट घरेलू स्वाभाव के अमृतलाल को घर में स्थिर नहीं रहने देती। उन्हें बार बार घर से बाहर खींच लाती है ? आगे फिर जवाब भी देते हैं कि रवींद्रनाथ ने अपने एक ही गीत में एक ही विशेष्य के लिए तीन विशेषणों का इस्तेमाल किया है- साधक, प्रेमिक और पागल। इनमें से दो को सदा ही समानार्थी माना गया है पर तीसरा भी पांत से बाहर नहीं है। तीनों एक दूसरे का हाथ थामकर ऐसे चलते हें मानों तीनों तीन नहीं एक ही हों। अमृतलाल ऐसे ही अर्थ में नर्मदा के साधक हैं, उनकी साधना का मूल मंत्र प्रेम है। वे नर्मदा से विछोह सहन नहीं कर पाते हैं। नर्मदा की अंगुली पकड़े रहने के लिए दुरुह शूलपाणि की झाड़ियां और जेठ की दुपहरी में तपकर लाल हुई नर्मदा घाटी की चट्‌टानों से झुलसने के बाद भी हार नहीं मानते।
अमृतलाल वेगड़

अमृतलाल जी की यह यात्रा जबलपुर से शुरू होती है। पूरे वृतांत में पौराणिक कथाओं लोक संस्कृति का जीवंत वर्णन है। वे नर्मदा के सौंदर्य को एक निपट नई निगाह से देखते हैं। उनकी सौंदर्य दृष्टि इतनी विस्तृत है कि उसमें नदी के किनारों पर बसे गांवों और उनकी जीवन शैली तक समाहित हो गई है। यात्रा की एकदम शुरुआत में ही छतरपुर में वे एक मिट्‌टी के घर पर बेलबूटे बनाते देखते हैं तो उनका मन बरबस ही उसकी ओर खिंच जाता है। इसी तरह मंडला में नर्मदा की कगार पर बैठे कृषक पति पत्नी खेत में चप्पल पहनकर घुसने से रोकते हैं। यह भारतीय लोक जीवन का एक आइना है। जहां खेत महज जमीन का एक टुकड़ा नहीं है। यात्रा के समय भरपूर हास परिहास करते हैं। एक स्कूल में रात को रुकने पर सहयात्री पांडे जी कहते हैं कि बघेरा आएगा तो पहले आपको ही शिकार बनाएगा, इस पर वेगड जी कहते हैं कि बहुत दुबला हूं, बेचारे का प्रथम ग्रासे मक्षिकापात होगा। पर हां तुम्हारे पास आएगा तो मधुरेण समापयेत होगा।

रुपक ओर उत्प्रेक्षा का प्रयोग तो ऐसे करते हैं जैसे वे बिन बुलाए मेहमान हों। वे एक सुबह के बारे में लिखते हैं, 'सुबह नारंगी रंग का बड़ा भारी सूरज निकला। निकला नहीं उगा, पौधा जैसे धरती में से उगता है। ताजा जन्मा सूरज नवजात शिशु सा नर्म और कोमल लग रहा था।' इसी तरह नदी के अर्ध चद्राकार घुमाव पर बसे मंडला की तुलना कान के कुंडल से करते हैं।  वे कुछ यों लिखते हें, अमरकंटक से चलने के बाद नर्मदा डिंडौरी से सीधे जबलपुर आने की बजाए दक्षिण की ओर एक बड़ा लपेटा लगाती है। इसी अर्ध चंद्राकार के मध्य में है मंडला। नर्मदा मानों नर्मदा के कान कुंडल में बसा है। नर्मदा यदि ऐसा ही लपेटा मालवा में लगाती तो इंदौर और गुजरात में लगाती तो बड़ौदा नर्मदा किनारे होते। इंदौर और बड़ौदा जिससे वंचित रह गए, मंडला उसे सहज ही पा गया।

नदी के पानी को देखकर वे ध्यानस्थ हो जाते हैं, जिस तरह नर्मदा की निर्मल, धवल धार प्रवाहित होती है, उसी तरह विचारों का झोंका भी वेगड़ जी के मन-मस्तिष्क में उठता है। पानी को देखकर वे कहते हैं, अजीब है यह पानी। इसका अपना कोई रंग नहीं है, पर इंद्रधनुष के समस्त रंगों को धारण कर सकता है। इसका अपना कोई आकार नहीं है। पर असंख्य आकार ग्रहण कर सकता है। इसकी कोई आवाज नहीं है पर वाचाल हो उठता है तो इसका भयंकर वज्र निनाद दूर-दूर तक गूंज उठता है। गतिविहीन है पर गतिमान होने पर तीव्र वेग धारण करता है और उन्मत्त शक्ति और अपार ऊर्जा का स्रोत बन जाता है। उसके शांत रूप को देखकर हम ध्यानावस्थित हो उठते हैं तो उग्र रूप को देखकर भयाक्रांत। जीवनदायिनी वर्षा के रूप में वरदान बनकर आता है तो विनाशकारी बाढ़ बनकर प्रचंड तांडव करता है। अजीब है यह पानी। वेगड़ जी की निगाह प्रपात के एश्वर्य को देखती है, नदी की धारा के गुण को देखती है। उनकी निगाह में नर्मदा एक नदी, जीवित शख्सियत है। जो हज़ारों-हज़ार वर्षों से अपने प्रवाह में जीवन को रूपायित और आलोकित करती आई है। 

उन्हें इस बात की भी फिक्र है कि अगले 25 साल में इस नदी का सौंदर्य क्षीण हो जाएगा। बांध बनाए जाने के बाद इसके किनारे डूब जाएंगे। हालांकि उन्हें लगता है कि इससे सूखे और तड़के खेतों को पानी मिलेगा।  और धरती लहलहा उठेगी। शायद वे कॉर्पोरेट कुचक्र को नहीं समझते थे। समझते होते तो बांधों को इतनी उम्मीदों भरी निगाह से नहीं देखते। उन्होंने नर्मदा की धारा के साथ जीवन पाते जीव, वनस्पति, प्रकृति, खेत, पंक्षी, इंसान सभी को इसमें गूँथा है। वे बताते हैं कि किस तरह नदी महज एक जल संसाधन नहीं, बल्कि मनुष्य के जीवन से मृत्यु तक का मूल आधार है। इसकी रेत भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण है जितनी जल धारा और इसमें मछली भी उतनी ही अनिवार्य है जितना उसके तट पर आने वाले मवेशियों के खुरों से धरती का मंथना।
अध्याय 13 में वे लिखते हैं, ‘‘नर्मदा तट के छोटे-से-छोटे तृण और छोटे-से-छोटे कण न जाने कितने परव्राजकों, ऋषि-मुनियों और साधु-सन्तों की पदधूलि से पावन हुए होंगे। यहां के वनों में अनगिनत ऋषियों के आलम रहे होंगे। वहाँ उन्होंने धर्म पर विचार किया होगा, जीवन मूल्यों की खोज की होगी और संस्कृति का उजाला फैलाया होगा। हमारी संस्कृति आरण्यक संस्कृति रही। लेकिन अब? हमने उन पावन वनों को काट डाला है और पशु-पक्षियों को खदेड़ दिया है या मार डाला है। धरती के साथ यह कैसा विश्वासघात है।’’
ओंकारेश्वर                                                             (फोटो साभार: गूगल)


पूरे नर्मदा यात्रा के दौरान एक और भी खास बात देखने को मिलती है। शुरुआत में नदी चंचल और तीव्र है, किसी बच्चे की तरह। जैसे-जैसे वह आगे बढ़ती है प्रौढ़ व्यक्ति की तरह उसकी प्रवृत्ति हो जाती है आखिर में एक बुजुर्ग की तरह शांत चित्त होकर बहती है समुद्र के पास पहुंचने पर। शुरुआत में उसका जीवन काफी असान होता है और मध्य में वह निर्जन वनों में, शूलपाणेश्वर की झाड़ियों वाले मैदान में बहती है। जैसे जैसे वह आगे बढ़ती है उसके चित्त में शांति आती जाती है लेकिन वह विशाल होती चली जाती है। यही जीवन है। कबीर बड़ से विमलेश्वर की यात्रा वाले पाठ में वेगड़ जी कहते भी हैं कि यही जीवन है, ज्यों ज्यों जीवन का सूर्यास्त निकट आता है, अधिकांश चीजें छूटती जाती हैं और यात्री अंतिम यात्रा के लिए हल्का फुल्का हो जाता है। वे कहते हैं कि कबीरबड़ पहुंचते पहुंचते नर्मदा बोलने कम और सुनने ज्यादा लगती है। वन विहार छूट गया, उसका लुकाछिपी का खेल बंद हो गया। यहां तक कि जिससे वह बनी है, पानी, चट्‌टान, प्रपात, शोर और मोड़। एक-एक कर सब छूटते जाते हैं।

लगभग आखिर में उन्होंने बड़ी ही खूबसूरत और विचार में डूबी हुई कविता के साथ यह यात्रा समाप्त करते हैं। यह तुलना है, समुद्र और मनुष्य की। कहते हैं न आदमी तो है ही पानी का बुलबुला, बस उसे ही कुछ अलहदा अंदाज में लिखा है-

पृथ्वी पर तीन भाग जल
और एक भाग थल है। 
हमारे शरीर में तीन भाग जल
और एक भाग हड्‌डी है। 
बिल्कुल वही अनुपात
हमारा हृदय धड़कता है
समुद्र गरजता है
समुद्र का गर्जन 
कहीं धरती के हृदय की धड़कन तो नहीं !
माना कि समुद्र का पानी खारा है 
पर हमें तो वह मीठा पानी ही देता है!
बादल से खारा पानी तो नहीं बरसता!
शबरी की तरह चख-चखकर 
हमें तो वह मीठे बेर ही देता है !
समुद्र शबरी, धरती राम 
जुग-जुग की कहानी अविराम! 





टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

गड़रिये का जीवन : सरदार पूर्ण सिंह

तलवार का सिद्धांत (Doctrine of sword )

युद्धरत और धार्मिक जकड़े समाज में महिला की स्थित समझने का क्रैश कोर्स है ‘पेशेंस ऑफ स्टोन’

माचिस की तीलियां सिर्फ आग ही नहीं लगाती...

स्त्री का अपरिवर्तनशील चेहरा हुसैन की 'गज गामिनी'

ईको रूम है सोशल मीडिया, खत्म कर रहा लोकतांत्रिक सोच

महत्वाकांक्षाओं की तड़प और उसकी काव्यात्मक यात्रा

महात्मा गांधी का नेहरू को 1945 में लिखा गया पत्र और उसका जवाब

चाय की केतली