आधी रात को टिपटिपाते पानी में गांव की सुलगती-उलझती याद

अषाढ़ के बादल बाहर टिप-टिप बरस रहे हैं। ये टिप-टिप बरसा पानी वाले बादल नहीं हैं। ये तो बस बरस कर निकल जाएंगे, सुबह आंख खुलेगी तो धूप से आंख मिचमिचाएगी। लेकिन अभी का माहौल कुछ ऐसा है कि गांव और घर की याद आ रही है बड़ी बेतहाशा। इस तरह बारिश से मेढक टर टराने लगते थे। घर के सामने खड़े बबूल के पेड़ पर जुगनू चमकते थे। माहौल थोड़ा रोमांचक, थोड़ा खुशी वाला और थोड़ा सैडेटिव हुआ करता था। थोड़ा सैडेटिव होने की कोई खास वजह न होते हुए भी ऐसा होता था। शायद यह बस मौसम का असर हुआ करता था। भीतर गर्मी होती थी, बाहर आसमान से पानी चू रहा होता था।
अभी बस याद आ रहा है वही माहौल, वही मौसम। कई बार जहां हम रह रहे होते हैं वो हमें अच्छा नहीं लगता। इसे ही शायद कहते हैं, घर की मुर्गी साग बराबर।
फोटो: गूगल से साभार 
यहां (इंदौर) में बारिश हो रहा पर पूरी तरह सन्नाटा है। एकदम नीम सन्नाटा। गली के कोने पर कुत्ता दुबक कर बैठा हुआ है। स्ट्रीट लाइट की रोशनी में सड़क पर इकट्‌ठा हुआ पानी चमक रहा है। अजीब से ख्याल आ रहे हैं उस कुत्ते, चमकते पानी और खुद को छाया में आराम से खड़े हुए देखकर। यह भी एक अति ही है कि मैं खुद को उस कुत्ते की जगह रख रहा हूं। कुछ समय पहले तक यही स्थिति होती थी घर पर। बारिश तो चाहिए थी लेकिन कसके चार बूंद पड़ते ही सिर छिपाने की जगह नहीं मिलती थी। छह सात लोगों का परिवार जहां-तहां दुबक जाता था। एक यह स्थिति है कि मैं गाने गा रहा हूं, रिमझिम गिरे सावन...।

कल ही घर पर बात हुई थी। सब बारिश के इंतजार में पपीहे हुए जा रहे हैं। इधर हमने आज भी लंबी-चौड़ी खबर लगाई है मुंबई में बाढ़ से हालात की। मेरा मन बाहर की झीसेदार बारिश को सुनकर धान-धान हो रहा है। हां सुनकर क्योंकि बाहर अंधेरा है और कुछ भी दिखाई नहीं पड़् रहा है। बस उसकी आवाज से समझ आ रहा कि झीसा पड़ रहा है। यह भी क्या गजब है कि कितनी सारी चीजें हम सब आवाज से समझ जाते हैं। आवाज का भी कितना महत्व है। इसका कहीं प्रशिक्षण नहीं लिए इसके बावजूद। धान भी क्या शै है इस दुनिया की। मन एकदम गदगद हो जाता है। कहने को तो कोई गेहूं और अरहर,चने वगैरह को भी कह सकता है। लेकिन धान जैसी बात कहां उसमें। अभी जरई का मौसम है, कियारी तैयार करने, उसमें अंखुआया धान छींटने और फिर चिड़िया हड़ाने। कितना कुछ होता है तब वह तैयार होता है दस पंद्रह दिन बाद बैठाने लायक। यह सब कुछ रिवाइंड हो रहा है। मैं यह सब सोचते हुए यह भी सोच रहा हूं कि खेत नहीं होंगे तो धान कहां होगा। बारिश नहीं होगी तो धान कैसे होगा ? कितने साल बारिश न हो तो धान हो सकता है। शायद हम बुरी तरह गांव की याद में उलझे हुए हैं, लेकिन क्या कर सकते हैं। यही बस दिमाग में है।
दिन में झीसा और बादल देखकर बिल्कुल ऑफिस जाने का मन नहीं करता। बस मन करता है नदी किनारे बैठकर केचुआ लगा-लगा कर कंटिया से मछली मारी जाए। मेरे गांव की नदी में अब एक भी मछली नहीं रह गई है। लेकिन मन होता है, बस कंटिया पानी में डालकर बैठे रहा जाए और उसकी गुल्ली डुबकने का इंतजार किया जाए। कितना तो धैर्य का काम है गुल्ली डुबकने के इंतजार में घंटों बैठे रहना। उस वक्त तो टाइस पास के लिए फेसबुक जैसा भी कुछ नहीं था। फिर भी बिना ऊबे घंटों बैठे रहा जाता था। दो चार घंटे में एक भी सेधरी फंस गई तो समझिए नेमत हुआ करती थी। जैसे सारी दुनिया की खुशी मिल जाती थी। इसे खूबसूरत वक्त नहीं कहेंगे क्योंकि वह अभी तक अपरिभाषित है। न जाने कैसा वक्त था। उम्र में बड़े लोगों के लिए यह सब लफंगई था और हम सब के लिए कुछ भी न सोचने समझने वाला वक्त। वह अच्छा था या बुरा उसके बारे में जब तब नहीं सोच थी तो अब क्यों । शायद अच्छा रहा होगा।

बस इतना ही, बाहर पानी टिपटिपा रहा है, उसके लिए बस फिर से वही गाना रिमझिम गिरो सावन...सुलग सुलग जाए मन। यह रोमांटिक गाना है लेकिन आज तो बस रोमांस आ रहा धान के खेतों से।






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