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एक नदी की सांस्कृतिक यात्रा और जीवन दर्शन का अमृत है 'सौंदर्य की नदी नर्मदा'

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यात्रा वृतांत  पढ़ना कुछ हद तक उस स्थिति में तृप्ति दायक है जब यात्राएं करना किसी वजह से संभव न हों। पढ़ते वक्त शारीरिक न सही पर मानसिक रूप से लेखक के साथ पाठक भी यात्रा तो कर ही रहा होता है। 'सौंदर्य की नदी नर्मदा' ऐसा ही एक यात्रा वृतांत है, जिसमें अमृतलाल वेगड़ मध्य और पश्चिम भारत को सींचने वाली हिमालय से भी पुरानी नदी नर्मदा के तट की परिक्रमा पर ले जाते हैं। मन और कर्म से कलाकार वेगड़ जी ने नमर्दा के अनुपम सौंदर्य का चित्र शब्दों के जरिए खीचा है। किस तरह नर्मदा ने अपने जल से पत्थरों कों हजारों वर्ष में तराश कर मॉर्डन शिल्प में बदल दिया है, खिले हुए फूल की तरह झरने, सब कुछ उन्होंने रंग और ब्रुश की बजाए कलम से चित्रित किया है। एक और बात, यह वृतांत सिर्फ नमर्दा के स्थूल सौंदर्य का वर्णन भर नहीं बल्कि सांस्कृतिक दस्तावेजीकरण भी है। वेगड़ जी के यात्रा वृतांत से पहले तो किताब शुरू करते ही उसकी भूमिका का रसास्वादन मिलता है। मोहनलाल वाजपेयी जी ने क्या खूबसूरत भूमिका लिखी है। वे भूमिका में लिखते हैं, विचित्र नहीं यदि ऐसी अद्वितीया, पुण्योत्मा, शिव की आनंद विधायिनी, सार्थक नाम्ना श्र

आधी रात को टिपटिपाते पानी में गांव की सुलगती-उलझती याद

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अषाढ़ के बादल बाहर टिप-टिप बरस रहे हैं। ये टिप-टिप बरसा पानी वाले बादल नहीं हैं। ये तो बस बरस कर निकल जाएंगे, सुबह आंख खुलेगी तो धूप से आंख मिचमिचाएगी। लेकिन अभी का माहौल कुछ ऐसा है कि गांव और घर की याद आ रही है बड़ी बेतहाशा। इस तरह बारिश से मेढक टर टराने लगते थे। घर के सामने खड़े बबूल के पेड़ पर जुगनू चमकते थे। माहौल थोड़ा रोमांचक, थोड़ा खुशी वाला और थोड़ा सैडेटिव हुआ करता था। थोड़ा सैडेटिव होने की कोई खास वजह न होते हुए भी ऐसा होता था। शायद यह बस मौसम का असर हुआ करता था। भीतर गर्मी होती थी, बाहर आसमान से पानी चू रहा होता था। अभी बस याद आ रहा है वही माहौल, वही मौसम। कई बार जहां हम रह रहे होते हैं वो हमें अच्छा नहीं लगता। इसे ही शायद कहते हैं, घर की मुर्गी साग बराबर। फोटो: गूगल से साभार  यहां (इंदौर) में बारिश हो रहा पर पूरी तरह सन्नाटा है। एकदम नीम सन्नाटा। गली के कोने पर कुत्ता दुबक कर बैठा हुआ है। स्ट्रीट लाइट की रोशनी में सड़क पर इकट्‌ठा हुआ पानी चमक रहा है। अजीब से ख्याल आ रहे हैं उस कुत्ते, चमकते पानी और खुद को छाया में आराम से खड़े हुए देखकर। यह भी एक अति ही है कि मैं खुद को उस कुत