दो कौड़ी की वेब सीरीज है 'लैला'

नेटफ्लिक्स पर रिलीज हुई दीपा मेहता की वेब सीरीज लैला को लेकर काफी चर्चा है। कहा तो यह जा रहा है कि मेहता के डायरेक्शन में बनी यह वेब सीरीज भारत की आजादी के शताब्दी वर्ष यानी 2047 का आइना है। सीरीज की शुरुआत थोड़ी रोमांचक और डरावनी लगती है। हर तरफ धुआं-धुआं और कचरे का पहाड़ दिखता है। किसी किसी फिल्म या कहानी में कई बार हम लोग तो इसलिए भी कुछ स्पेशल खोजने लगते हैं कि उसकी खूब चर्चा हो रही होती है। हमने एक दिन में चार एपिसोड इसी उम्मीद में देख डाले कि शायद कुछ स्पेशल हो इसमें। लेकिन न तो यह फिल्म भविष्य के शुद्धतावद की सनक से डरा पाती है और न ही पर्यावण संकट को लेकर, जैसा कि शुरुआत ही इसी विषय से होती है।

सीरीज के पहले एपिसोड का पहला बड़ा शॉट है शुद्धतावादियों का शालिनी और रिजवान के घर धमक पड़ना। वो शालिनी पाठक, उसकी बच्ची को उठा ले जाते हैं और रिजवान की हत्या कर देते हैं। पहला सवाल भी यहीं उठता है कि अंतर धार्मिक/जातीय विवाह की वजह से शुद्धतादी पकड़कर ले जाते हैं तो उन्हें पानी चोरी करने के आरोप का बहाना क्यों बनाना पड़ा ? आखिर यह देश आर्यावर्त बन चुका था। उनकी सरकार थी, इसके बावजूद वो किसी को श्रम केंद्र भेजने के लिए सही वजह की बजाए दूसरे किसी आरोप में ले जाते हैं ? भारत के आर्यावर्त बनने की कल्पना की तुलना हिटलर की नाजी जर्मनी से करें। जर्मनी में तो हिटलर के लोग किसी बहाने नहीं ले जाते थे किसी को। यहां तक कि कंबोडिया में खमेररूज के शासन काल में भी बहाने से नहीं ले जाया जाता था। हां अभी चीन अपने शिनजियांग प्रांत में ऐसा कुछ करता है। वह ऐसा अंतरराष्ट्रीय डर से करता है। तो क्या आर्यावर्त के जोशी को अंतरराष्ट्रीय डर था ? डर था तो उसे सीरीज में क्यों नहीं दिखाया गया या संकेत किया गया।

इस फिल्म में सैकडों झोल हैं। जो जिनपर इसके विवादित कंटेंट की चर्चा के कारण बात नहीं हो सकी। इस सीरीज में लूप वाले टेप पर गाने बजाते हुए दिखाया गया है। यह भी गजब बात है कि आर्यावर्त के पास हर एक व्यक्ति के शरीर में चिप फिट करने की क्षमता है लेकिन उस आर्यावत में सत्ता में दूसरे नंबर का व्यक्ति टेप पर गाने सुनता है। फैज अहमद फैज की सारी गजलें अभी ऑनलाइन मौजूद हैं। सोचिए 28-29 साल बाद तकनीक कितनी फॉस्ट हो चुकी होगी। लेकिन उसको टेप चोरी से मंगवाना पड़ता है।

ऐसे झोल और भी हैं। हाई सिक्योरिटी सिस्टम से लैस आर्यावर्त में हाई सेंसटिव डेटा स्टोरेज वाले कंप्यूटर सिस्टम को शालिनी पाठक यानी हुमा कुरैशी ऐसे खोलती है जैसे वही पासवर्ड सेट की है सारे कंप्यूटरों के। यार इससे अधिक मेहनत तो बहुत नाम मात्र का पर्सनलाइज पासवर्ड भूल जाने पर लग जाती है। कैसा आर्यावर्त है, जहां सब  इतना हल्का है। अभी हर दिन गाड़ियों के रंग रूप बदल रहे हैं लेकिन 28 साल बाद वाले आर्यावर्त में कुछ भी नहीं बदलता। बस 2019 से उठाकर 2047 में रख दिया गया। इसके श्रम केंद्र तो श्रम केंद्र जैसे लगते ही नहीं। वहां कोई दिखता ही नहीं। एक बात और भी मजेदार है इस फिल्म में। इंसान के शरीर में चिप फिट कर दिया लेकिन उसे ट्रैक करने का सिस्टम बेचारे आर्यावर्त वाले विकसित नहीं कर सके। शालिनी पाठक को कचरे के पहाड़ पहाड़् दो सिपाही खोजते फिरते हैं। यह तो ऐसा लग रहा था जैसे किसी नब्बे के दशक की फिल्म देख रहे हों। इसकी सिनेमेटोग्राफी भी दो कौड़ी की है। कम से कम कैमरे की कला ही दिख जाती। वो भी नहीं हो पाया है। एक भी ऐसा सीन नहीं है, जिस पर निगाह टिक सके। न सुंदरता से दिल में में उतर सके तो कम से कम घृणा ही पैदा करती तो सार्थक होता।

पूरी सीरीज पहले एपिसोड के बाद हांफते हुए नजर आती है। जैसे तैसे पूरा होती है और आखिर में अजीब सी स्थिति में खत्म कर दी जाती है। इसे पर्यावरण विमर्श, कट्‌टरता, जाति/धर्म आधारित समाज, नस्लीय श्रेष्ठता सारे विमर्श आखिर तक चारो खाने चित्त नजर आते हैं। इन पर कोई कायदे की बात ही नहीं निकलती। बस पूरी वेब सीरीज एक तकतकवर किडनैपर से बेटी को छुड़ाने के लिए आकाश-पाताल एक किए मां की कहानी बनकर रह जाती है। इसमें मां-बेटी के अलावा विद्रोहियों का एंगल भी घुसेड़ दिया गया है। वो कब शुरू होता है, कुछ भी पता नहीं चलता। बस जो कुछ देर पहले तक जोशी के लिए काम करता था, जी हां जोशी के लिए क्योंकि सरकार का संचालन दिखाया ही नहीं गया है, वह अचानक विद्रोही हो जाता है। छह एपिसोड तक कुछ निर्णायक जानने की उत्सुकता में आखिर में पता चलता है कि उल्लू बना दिए गए हैं शुद्धतम रूप से। अब छह-सात एपिसोड के नए सीजन का इंतजार करो।

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