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दो कौड़ी की वेब सीरीज है 'लैला'

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नेटफ्लिक्स पर रिलीज हुई दीपा मेहता की वेब सीरीज लैला को लेकर काफी चर्चा है। कहा तो यह जा रहा है कि मेहता के डायरेक्शन में बनी यह वेब सीरीज भारत की आजादी के शताब्दी वर्ष यानी 2047 का आइना है। सीरीज की शुरुआत थोड़ी रोमांचक और डरावनी लगती है। हर तरफ धुआं-धुआं और कचरे का पहाड़ दिखता है। किसी किसी फिल्म या कहानी में कई बार हम लोग तो इसलिए भी कुछ स्पेशल खोजने लगते हैं कि उसकी खूब चर्चा हो रही होती है। हमने एक दिन में चार एपिसोड इसी उम्मीद में देख डाले कि शायद कुछ स्पेशल हो इसमें। लेकिन न तो यह फिल्म भविष्य के शुद्धतावद की सनक से डरा पाती है और न ही पर्यावण संकट को लेकर, जैसा कि शुरुआत ही इसी विषय से होती है। सीरीज के पहले एपिसोड का पहला बड़ा शॉट है शुद्धतावादियों का शालिनी और रिजवान के घर धमक पड़ना। वो शालिनी पाठक, उसकी बच्ची को उठा ले जाते हैं और रिजवान की हत्या कर देते हैं। पहला सवाल भी यहीं उठता है कि अंतर धार्मिक/जातीय विवाह की वजह से शुद्धतादी पकड़कर ले जाते हैं तो उन्हें पानी चोरी करने के आरोप का बहाना क्यों बनाना पड़ा ? आखिर यह देश आर्यावर्त बन चुका था। उनकी सरकार थी, इसके बावजूद वो किसी

एकरंगी होती दुनिया

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आज मैं सुबह से मेरे दिमाग में एक बात तनकर खड़ी हो गई है। कतई वह खिसकने का नाम नहीं ले रही है। बात है एकरसता की, विविधता की। यह दुनिया जैसे-जैसे आगे बढ़ रही है, कितना एकरस होती जा रही है। चाहे वह भाषा हो या खान-पान। जीवों जेनेटिक विविधता हो या फलों और सब्जियों की। सारे शहर एक जैसे ही लगते हैं। एक जैसी बनावट, लगभग एक ही जैसा कल्चर। खाने के मामले में तो पूछना ही नहीं है। चाइनीज पंजाबी और साउथ इंडियन का इस तरह प्रभुत्व है कि स्थानीय स्तर की सारी चीजें गायब। जब मैं किसी शहर की सड़क पर टहलता हूं तो बड़ी बोरियत सी लगती है। पिछले वाले शहर वाले मैक्डोनॉल्ड और सीसीडी से यहां भी सामना हो जाता है। विविधता किसी भी शहर के पुराने हिस्से में तो बची है लेकिन जो नया हिस्सा है वहां बिल्कुल नहीं है। इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि नई संस्कृति किस तरह विविधता को लील जाने पर आमादा है। भाषायी और जैव विविधता को थोड़ा सा आंकड़ों में देखें तो स्थिति ज्यादा साफ दिखती है। 1903 से लेकर अब तक सब्जियों की 93 फीसदी से अधिक प्रजातियां खत्म हो चुकी हैं। 1903 में सिर्फ कद्दू की 285 प्रजातियां दुनिा भर में उगती थीं