शेखर और मैं
एक मैराथन प्रयास के बाद 'शेखर: एक जीवनी' पढ़कर संपन्न कर दिए। खत्म करने के तत्काल बाद तो वैसा ही था जैसा कोई अन्य किताब पढ़ने के बाद महसूस होता है। सूनापन जैसा। जैसे कुछ दिन के लिए कोई चीज जिंदगी का हिस्स हो गई हो। सोते-जागते, हर वक्त उसका साथ रहता है। शेखर एक जीवनी पहली किताब है, जो पढ़ने के बाद करीब शाम तक धीरे-धीरे अपने पाश में लेती गई और पूरी तरह अपनी गिरफ्त में ले ली। एक समय मेरी जिंदगी में उतनी ही उदासी भर गई, जितना आखिर में शेखर और शशि के जीवन के जीवन में थी। हमने अपने भीतर कई तरह विकृतियां देखनी शुरू कर दी। जो शेखर के जीवन में थी। वह सब हमारे पोर-पोर में चुभने लगी। शुरुआत से शेखर का बचपन और मेरा बचपन करीब-करीब एक जैसा था। उतनी ही उपेक्षा हमें मिली, जितनी शेखर को। मुझे उपेक्षा मिली, ऐसा मैं सोचता हूं। शेखर भी यही सोचता था। शायद ऐसा न रहा हो। मैं उतना विद्रोही नहीं रहा कभी तो शरारतें कम करता था लेकिन क्लास में पढ़ने में मन कभी नहीं लगा। उसी की तरह मेरे भीतर सब्र नहीं है। क्रांति जैसा कुछ करना तो चाहता हूं पर जल्द ही इरादे हांफ जाते हैं। शायद यह एक मध्यम वर्गीय व्यक्ति का यूनिवर्सल गुण है।
कई बार ऐसा भी लगा कि अज्ञेय ने जानबूझ कर शेखर को जबरदस्ती हीरो बना रहे हैं। इसके लिए उन्होंने शेखर के आसपास के कैरेक्टर को बौना बना दिया। शेखर इतना गड्ड मड्ड व्यक्ति है, उसका कुछ भी तय नहीं रहता। यहां तक कि वह प्रेम में भी विश्वास नहीं करता। बहुत सारी महिलाओं से प्रेम करता है लेकिन सब अधूरा। हालांकि यह सब मेरे से नहीं मिलता। कई बार यह भी लगता है कि वह काफी इमानदार है। एक और बात, पूरा उपन्यास एक बालक के व्यक्ति बनने की कहानी है। उतनी ही गति से शेखर की आदतें बदलती हैं।
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