स्व से साक्षात्कार
1
मैं नि:शब्द हूं
निर्वाक्, भौचक
विस्मित, जब
नजर गई स्वयं पर
एक दिन औचक
भटक रहा था रोशनी के लिए बाहर
और ...
घना अंधेरा था अंतस में ही मेरे
उत्कंठा थी विश्व, ब्रह्मांड
जान लेने की जल्दी
अनजान था खुद से
लड़ना चाहता था जिनसे बाहर
वो सब मौजूद स्वयं के भीतर
लबरेज था सामंती वृत्तियों से
और खोज-खोज कर टकरा रहा था बाहर
देख रहा था क्रांति के सपने
जब देखा खुद के भीतर
तब हुआ प्रकाश
क्रांति तो मांग रहा मेरा ही अंतस
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2
मेरे पास खत्म हुए किस्सों की खामोशी है
खुद से भी बातें खत्म हो जाने के बाद का मौन
टीस है ठंडी उदासी घनी होने की
कुछ प्रकाश है शोर का इस खामोशी,
उदासी और मौन मिले क्षण में
जहां खत्म हो जाती हैं सब किस्से, कहानियां, बातें
शुरू होता है सवालों का अंधड़
उड़ा ले जाता है कहीं दूर वीराने में
क्या छुपी हुई थी असल बात दो वाक्यों के बीच
अव्यक्त की भी होती है अपनी कोई कहानी
जानना चाहता हूं मैं दो अंतरालों के बीच की बात
रात अंतराल है एक दिन के जीवन का
क्या जीवन होता है सिर्फ दशकों लंबी उम्र
जीवन हो सकता है बस रात भर का
बस दो बातों के अंतराल जितना कुछ क्षण
दो सांसों के बीच जितना सूक्ष्म
लेकिन संपूर्ण
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