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मई, 2019 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

एक कविता का सर्वोदयी स्वर ...

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विनोद कुमार शुक्ल का कविता संग्रह 'सब कुछ होना बचा रहेगा' काफी दिन से बुक शेल्फ में रखा हुआ था। अचानक से कुछ न पढ़ी गई किताबें टटोलते हुए उसकी याद आ गई। गुंजेश भाई कई बार विनोद कुमार शुक्ल की कविता सुनाए हैं पहले। उन्हीं के बताने पर यह काव्य संग्रह भी लिए थे। अब हमारी इतनी हैसियत तो नहीं कि विनोद कुमार शुक्ल की किसी कविता की या उनके कविता संग्रह की समीक्षा करें। बस पढ़ते हुए एक कविता मन-मस्तिष्क में कहीं गहरे धंस गई। इसे तीन से चार बार पढ़ चुके हैं अब तक। मंगल ग्रह इस समय पृथ्‍वी के बहुत पास आ गया है'  कविता जितनी बार पढ़ते हैं, हर बार गांधीवाद और उनका सर्वोदयी दर्शन बहुत बेसब्री से याद आ जाता है। इस कविता को पढ़ते हुए सबसे पहले धरती पर आसन्न जलवायु संकट पर दिमाग जाता है। यह धरती, जिसे अथर्व वेद में 'धरती माता' कहा गया है, को इसके ही बेटे-हम सब तहस-नहस करने को आमादा हैं। इंसान आर्टिफिसियल इंटेलिजेंस तक पैदा कर लिया है लेकिन सवाल है कि यह सब किस काम का होगा जब धरती रहने लायक ही नहीं बचेगी ? अभी भारत जैसे देश का कोई भी मेट्रो और स्मार्ट सिटी पानी के मामले में बेपर है।

शेखर और मैं

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एक मैराथन प्रयास के बाद 'शेखर: एक जीवनी' पढ़कर संपन्न कर दिए। खत्म करने के तत्काल बाद तो वैसा ही था जैसा कोई अन्य किताब पढ़ने के बाद महसूस होता है। सूनापन जैसा। जैसे कुछ दिन के लिए कोई चीज जिंदगी का हिस्स हो गई हो। सोते-जागते, हर वक्त उसका साथ रहता है। शेखर एक जीवनी पहली किताब है, जो पढ़ने के बाद करीब शाम तक धीरे-धीरे अपने पाश में लेती गई और पूरी तरह अपनी गिरफ्त में ले ली। एक समय मेरी जिंदगी में उतनी ही उदासी भर गई, जितना आखिर में शेखर और शशि के जीवन के जीवन में थी। हमने अपने भीतर कई तरह विकृतियां देखनी शुरू कर दी। जो शेखर के जीवन में थी। वह सब हमारे पोर-पोर में चुभने लगी। शुरुआत से शेखर का बचपन और मेरा बचपन करीब-करीब एक जैसा था। उतनी ही उपेक्षा हमें मिली, जितनी शेखर को। मुझे उपेक्षा मिली, ऐसा मैं सोचता हूं। शेखर भी यही सोचता था। शायद ऐसा न रहा हो। मैं उतना विद्रोही नहीं रहा कभी तो शरारतें कम करता था लेकिन क्लास में पढ़ने में मन कभी नहीं लगा। उसी की तरह मेरे भीतर सब्र नहीं है। क्रांति जैसा कुछ करना तो चाहता हूं पर जल्द ही इरादे हांफ जाते हैं। शायद यह एक मध्यम वर्गीय व्यक्ति का

स्व से साक्षात्कार

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1 मैं नि:शब्द हूं  निर्वाक्, भौचक   विस्मित, जब नजर गई स्वयं पर  एक दिन औचक  भटक रहा था रोशनी के लिए बाहर  और ... घना अंधेरा था अंतस में ही मेरे  उत्कंठा थी विश्व, ब्रह्मांड  जान लेने की जल्दी  अनजान था खुद से  लड़ना चाहता था जिनसे बाहर  वो सब मौजूद स्वयं के भीतर  लबरेज था सामंती वृत्तियों से  और खोज-खोज कर टकरा रहा था बाहर  देख रहा था क्रांति के सपने  जब देखा खुद के भीतर  तब हुआ प्रकाश  क्रांति तो मांग रहा मेरा ही अंतस  ----- 2 मेरे पास खत्म हुए किस्सों की खामोशी है खुद से भी बातें खत्म हो जाने के बाद का मौन टीस है ठंडी उदासी घनी होने की  कुछ प्रकाश है शोर का इस खामोशी,  उदासी  और मौन मिले क्षण में  जहां खत्म हो जाती हैं  सब किस्से, कहानियां, बातें  शुरू होता है सवालों का अंधड़  उड़ा ले जाता है कहीं दूर वीराने में  क्या छुपी हुई थी असल बात दो वाक्यों के बीच अव्यक्त की भी होती है अपनी कोई कहानी  जानना चाहता हूं मैं दो अंतरालों के बीच की बात  रात अंतराल है एक दिन के जीवन का  क्या जीवन होता है