मुट्‌ठी से फिसला हुआ छुट्‌टी का दिन और शाम के कुछ घंटे


फाइल फोटो, साभार गूगल।
मुट्ठी से जिस तरह रेत सरकती है उसी तरह छूट्‌टी के दिन, दिन फिसल जाता है। सुबह आधे घंटे ज्यादा सोया जाता है। दोपहर को फिर पेट भरने का इंतजाम मुश्किल से। इस तरह एक लंबी नींद लेने के बाद जब आंख खुलती है तो शाम कमरे में आ चुकी होती है। दिन तो रोज के जैसा ही रहता है लेकिन यह शाम थोड़ी तो अलग होती है। गली में कई नए चेहरे नजर आते हैं। जो अन्य दिन कभी नहीं दिखते। बर्फ गोले वाले की घंटी सुनाई पड़ती है। पड़ोसी की प्ले लिस्ट का पता चलता है। यह शाम बहुत ठहराव लिए होती है। जैसे लगता है कि दुनिया को कहीं नहीं जाना है। सब इस शाम की मंद-मंद खुशी में शरीक हैं।

छुट्‌टी की शाम ही पता चलता है कि मुहल्ले में बच्चे भी रहते हैं। अपने मम्मी-पापा की अंगुली पकड़ कर चॉकलेट खरीदने की जिद करते हुए। हमजोलियों के साथ धमाचौकड़ी करते हुए। ये आजाद हो चुके होते हैं दस किलो के बस्ते और गले में फंसी टाई से। हां होमवर्क से अभी भी ये अपना पिंड नहीं छुड़ा पाए होते। लेकिन यह एक से दो घंटे का वक्त इनका अपना जरूर होता है। थोड़ा और बढ़िए तो एक ताजा हवा का झोंका आता है और मन को भिगो कर चला जाता है। यह परफ्यूम की खुशबू होती है। एक बारगी तो गर्दन घूम ही जाती है चारो ओर और नजर खोजने लगी है। यह भी मजेदार है कि आप जान नहीं पाते, कौन था यह सु्गंधित मनुष्य। यहीं कहीं मिलती है किराने की दुकान। जिस पर लोग हिसाब जोड़-जोड़ कर समान खरीने में व्यस्त होते हैं। बच्चे यहां भी किराना काउंटर पर तकरीबन लटकते हुए टॉफी और चॉकलेट या स्नेक्स के लिए जूझ रहे होते हैं।

सुबह को देखिए, दोपहर को देखिए और फिर दुकानों को शाम को देखिए। तीनों वक्त अलग-अलग सी रंगत नजर आती है। इनकी अपनी ट्यून होती है। सुबह फ्रेश-फ्रेश दिखती है। जैसे बस आज ही हम नहाए हुए हैं टाइप। दोपहर को अलसाया हुआ सब कुछ। जम्हाई सा लेता हूआ। गर्मी के दिन में तो छपकी लेता सा दिखता है। शाम को यही दुकानें सजी-धजी दुल्हन जैसी लगती हैं। लगता है इन्हें बस पार्टी में ही जाना है। कभी कभी मैं सोचता हूं कि एक ही गली को तीनों टाइम कैमरे में कैप्चर किया जाए तो क्या होगा ? कैसा दिखेगा। मैं सुबह और शाम के वक्त की सब्जी की दुकान की तुलना करता हूं। सुबह धनिया की पत्तियों के किनारे पर नमी होती है। वे ताजी होती हैं। शाम को उन पर सूखे होने का रंग चढ़ जाता है। फूल गोभी में एक नरमी आ जाती है। दोपहर को तो यह सब अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही होती हैं।

छुट्टी की ही शाम पता चलता है कि साथ कितने समय चल रहे होते हैं। वरना सप्ताह के अन्य दिन तो बस एक ही समय होता है। मुख्य सड़क पर हर कोई भागता नजर आता है। जिनमें अधिकतर लोग ऑफिस के बाद छुट्‌टी वाले होते हैं। कुछ मेरे जैसे लोग भी होते हैं। जो किनारे खड़े होकर एक लंबी जम्हाई लेते हैं। कुछ देर रुक कर इधर-उधर देखते हैं। सब्जी लेते हैं। वापस उसे झुलाते हुए वापस लौट पड़ते हैं। तब तक शाम रात की ओर कुछ कदम और बढ़ चुकी होती है। गली में लोगों का जुटान थोड़ा कम हो चुका होता है। कुत्ते गली के मुहाने पर अपना डेरा जमा चुके होते हैं। हम सब पूरे दिन छुट्‌टी खाक कर चुके लोग फिर से अपने कमरे में कैद हो जाते हैं। अपने साथ शाम के थोड़े रंग चुरा कर लाते हैं। ये रंग सप्ताह के छह दिन काम करने की शक्ति और सातवें दिन की छुट्‌टी का सब्र देते रहेंगे। यह रंग नहीं मानो जिंदगी का बूस्टर हों। 

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