सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म से क्रांति का भ्रम

इलस्ट्रेशन साभार: पावेल कुजोवस्की (Pawel Kuczynski)
सोशल मीडिया प्लेटफार्म वैकल्पिक मीडिया बनते बनते रह गया। यह अब कांस्पीरेसी का हथियार बन गया है। इसका इस्तेमाल जरूरी मुद्दों को दबाने और अस्थिरता फैलाने के लिए संगठित तरीके से किया जा रहा है। हमने पिछले कुछ दिनों में इतनी खबरें पढ़ ली है सोशल मीडिया से कांस्पीरेसी की कि मन में कहीं गहरे यह बैठने सा लग गया है, जो हम शेयर, प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहे हैं कहीं वह भी तो इसी का हिस्सा तो नहीं? कहीं हम इस्तेमाल तो नहीं हो रहे हैं। जिस मीम्स पर हम बैडौल से हाहाहाहा का रिएक्शन देकर आगे बढ़ जाते हैं या किसी पोस्ट पर कुछ नैनो सेकेंड के लिए ही दुखी हो जाते हैं वह प्रायोजित हो सकता है।
जिस आवाज को हम एंटी इस्टेबलिशमेंट समझते हों और वह भी जिसे प्रो गवर्नमेंट, दोनों सरकार के खड़े किए गए हैं, ऐसा पता चले तो आप पर क्या बीतेगी ? दरअसल ऐसा हो रहा है. जो चीज हम सरकार के खिलाफ और समर्थन में शेयर कर रहे हैं, उस पर रिएक्शन दे रहे हैं उसमें से काफी संख्या में कंटेट ऐसा होने की संभावना है, जो खास तरह के प्रपोगंडा का हिस्सा है या होने की संभावना है।
साल 2017 में आई अमेरिकी सीनेट इंटेलिजेंस कमेटी की रिपोर्ट कहती है कि अमेरिका में लोगों को भ्रमित करने के लिए रूस की इंटरनेट रिसर्च एजेंसी ने हजारों इंस्टाग्राम और फेसबुक अकाउंट तैयार किए. इसमें प्रो ट्रंप एंटी ट्रंप, प्रो नेशनलिज्म एंटी नेशनलिज्म, प्रो ह्वाइट नेशनलिज्म, लिबरललिज्म, फेमनिज्म-एंटी फेमनिज्म जैसे टॉपिक शामिल थे. मतलब कहने का कि समर्थन और विरोध एक ही जगह, एक ही कंप्यूटर और एक -दो व्यक्तियों द्वारा किया जा रहा था. मकसद बस एक था लोगों को नई नई बहस में उलझाना और ट्रंप को जिताना। आईआरए यहीं नहीं रुका. उसने अमेरिकी समाजवादियों को भी निशाना बनाया। एलजीबीटी अधिकार के नाम पर सोशल मीडिया पर नई बहस खड़ी कर दी और पूरा अमेरिका कई खेमों में बंट गया। इस तरह उसने ऐसे-ऐसे मुद्दों को हवा दी, जिसकी कहीं गंध तक नहीं थी। रूस ने तो अमेरिका के अटार्नी जनरल और जांच एजेंसी एफबीआई के पूर्व निदेशक रॉबर्ट मुलर को भी नहीं छोड़ा। अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव खत्म होने के बाद तक उन्हें प्रपोगंडा के जरिए निशाना बनाया जाता रहा।

दूसरा उदाहरण है, म्यांमार की सेना। उसने भी इतने बड़े पैमाने पर तो नहीं पर फिर भी रोहिंग्याओं के खिलाफ प्रपोगंडा फैला रही है। वह भी सेलिब्रिटी, सामाजिक कार्यकर्ताओं आदि के नाम से फेक अकाउंट बनाए। लेकिन यह काम सिर्फ रूस और म्यांमार ही नहीं कर रहे हैं। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी ने एक रिसर्च में कुछ महीने पहले, संभवत: जुलाई 2018 में ही बताया था कि दुनिया के करीब 48 देशों ने सोशल मीडिया पर प्रपोगंडा फैलाने के लिए बकायदा सेंटर तैयार कर रखा है। हालांकि एक या दो साल पहले ऐसे देशों की संख्या 28 थी। ये प्रपोगंडाबाज खास एल्गोरिदम के जरिए कुछ भी ट्रेंड करा देने की क्षमता रखते हैं। वे ऐसा करते भी हैं।

मुझे लगता है यह वर्चुअल प्लेटफॉर्म एक वेपन है। इसमें मीम्स जैसी गोलियां हैं. क्या पता मैं यह पोस्ट लिखने के तुरंत बाद ही इसका शिकार बन जाऊं, यह भी हो सकता है कि बन चुका होऊं पहले ही। 

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