गांधी और सत्याग्रह के प्रति जिज्ञासु बनाती है यह किताब

जब नील का दाग मिटा : चंपारण 1917
प्रकाशन - राजकमल
लेखक - पुष्यमित्र
चंपारण सत्यागह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक अहम मोड़ है| पहली बार भारतीय भूमि पर सत्य का राजनीतिक और सामाजिक बदलाव के लिए प्रयोग होता है| यही वह मोड़ है जब खेतिहर जनता कार्पोरेट फॉर्मिंग के खिलाफ खुलकर मुखर होती है और अपने आंदोलन को राष्ट्रीय फलक पर ले जाने का प्रयास करती है| सबसे महत्वपूर्ण है यह है कि इसी मोड़ पर गांधी पहली बार भारतीय गांवों और उसकी समस्याओं से रू-ब-रू होते हैं|
जब नील का दाग मिटा : चंपारण 1917 इस ऐतिहासिक मोड़ की घटनाओं को संजोने वाली पॉकेट बुक है| अभी तक चंपारण सत्याग्रह के नायक के तौर पर सिर्फ महात्मा गांधी को याद किया जाता है| लेकिन यह किताब बीसों ऐसे नायकों को सामने लाती है जिनके बिना चंपारण सत्याग्रह संभव ही नहीं था| इन नायकों में किसका काम सबसे महत्वपूर्ण था, इसका आंकलन तो संभव नहीं क्योंकि हर कोई महत्वपूर्ण नजर आता है| लेकिन शुरुआत की जाए तो राजकुमार शुक्ल पहला नाम है| जो गांधी को चंपारण लेकर आए| इनके साथ शीतल राय, शेख गुलाब और पीर मोहम्मद मुनिश जैसे बीसों नाम हैं|
यह किताब है तो 151 पेज की| लेकिन इसमें तत्कालीन पत्रकारिता को शामिल किया गया है| इसे पढ़ने पर काफी हद तक तत्कालीन पत्रकारिता के बारे में जानकारी मिलती है| किस तरह अंग्रेजी अखबार नील प्लांटरों का पक्ष लेते थे और हिंदी अखबार किसानों का| यह लिखते वक्त कल ही डाउन टू अर्थ में ‘आजादी का संघर्ष’ नाम से झारखंड के पत्थरगढ़ी पर छपी रिपोर्ट याद आ रही है| जिसमें बताया गया है कि किस तरह अखबारों की रिपोर्टिंग कंपनियों और सरकार के पक्ष में है| आदिवासियों के पक्ष को तोड़ा मरोड़ा जाता है|
इस किताब को पढ़ते हुए सबसे रोमांचक घटना है- जब गांधी 18 अप्रैल 1917 को अदालत में धारा 144 की अवज्ञा करने के मामले में पेश हुए| उनसे मजिस्ट्रेट ने अपना पक्ष रखने को कहा| जज सहित सभी को उम्मीद थी कि गांधी अपना बचाव करेंगे लेकिन कुछ इस तरह अपना गुनाह कबूल कर लिया -
अदालत के आदेश से मैं संक्षेप में बताना चाहता हूं कि मुझे जो सीआरपीसी की धारा 144 का नोटिस मिला था, मैनें उसकी अवज्ञा करने का कदम क्यों उठाया| मेरी विनम्र राय में यह स्थानीय प्रशासन और मेरे नजरिये में फर्क की बात है| मैने मानवतावादी और राष्ट्रीय सेवाओं के ख्याल से इस इलाके में प्रवेश किया था| ऐसा मैने बार बार रैयतों द्वारा भेजे जा रहे बुलावे की वजह से किया, उनका कहना है कि नील प्लांटर उनके साथ बेहतर बर्ताव नहीं करते| बिना समस्या को समझे मैं उनकी कोई मदद नहीं कर सकता| इसलिए मैं यहां यह अध्ययन करने आया हूं, अगर उपलब्ध हो तो स्थानीय प्रशासन और नील प्लांटरों की मदद भी लेना चाहता हूं| मेरा दूसरा कोई इरादा नहीं है और न ही मैं यह सोचता हूं कि मेरे आने से यहां की शांति व्यवस्था में कोई बाधा होगी या जन धन की हानि हो सकती है| मेरा मानना है कि इस कार्य का मुझे कुछ अनुभव भी है| हालांकि प्रशासन इस मसले पर दूसरे तरह से सोचता है| मैं उनकी कठिनाई को समझता हूं कि उन्हें उन्हीं सूचनाओं के आधार पर काम करना होता है, जो उनके पास उपलब्ध होती हैं| कानून में विश्वास रखने वाले नागरिक के तौर पर मेरा पहला काम उस आदेश को मानना होता, जो मुझे दिया गया था| लेकिन मैं उन लोगों का भरोसा तोड़े बगैर ऐसा नहीं कर सकता था, जिन्होंने मुझे यहां बुलाया है| मेरी राय है कि मैं उन लोगों के बीच रहकर ही उनका भला कर सकता हूं| यही वजह है कि स्वेच्छा से यहां से जा नहीं सकता| दो कर्तव्यों के परस्पर विरोध की दशा में यही कर सकता था कि मैं खुद को यहां से हटाने का जिम्मा यहां के शासकों पर छोड़ दूं|
मैं इस बात को लेकर काफी सजग हूं कि सार्वजनिक जीवन में मेरे जैसी छवि रखने वाले व्यक्ति को उदाहरण पेश करने के मामले में काफी चौकस रहना चाहिए| मेरा दृढ़ विश्नास है कि जिस परिस्थिति में मैं इस वक्त हूं, उसमें प्रत्येक प्रतिष्ठित व्यक्ति को वही काम करना चाहिए, जो मैने किया है| यानी आज्ञा न मानकर दंड सहने के लिए तैयार हो जाना| आज मैने यहां जो बयान पेश किया है उसका मकसद यह नहीं कि मेरा दंड कम कर दिया जाय| बल्कि उसका मकसद यह जाहिर करना है कि मैने सरकार के आदेश की अवज्ञा की है| उसकी वजह सरकार के प्रति मेरी अश्रद्धा नहीं है| बल्कि इसलिए कि मैं सरकार से भी उच्चतर कानून अपनी अंतर आत्मा के कानून का पालन करना उचित समझ रहा हूं|’’
गांधी का यह बयान सुनकर अदालत सकते में आ गई| मजिस्ट्रेट को समझ नहीं आया वह क्या करे| वह पूछता है कि साफ बताइए आपको अपराध कबूल है ! गांधी ने कहा कबूल है| मजिस्ट्रेट उन्हें तत्काल चंपारण छोड़कर जाने को कहता है लेकिन गांधी इनकार कर देते हैं|
इस पर उसने 100 रुपए की जमानत पर छोड़ने को कहा| गांधी ने कहा कि न तो मेरे पास जमानतदार हैं और न ही 100 रुपए| जज ने सिर पकड़ लिया और आखिरकार खुद ही मुचलका भर दिया|
संभवत: भारत में गांधी का पहला सविनय अवज्ञा था| गांधी के इस बयान और फिर अदालत के असहाय हो जाने से सत्याग्रह की शक्ति रेखांकित होती है| उन्होंने अन्याय के खिलाफ लड़ने को  अंतरआत्मा की आवाज कहकर अहिंसक अवज्ञा को नैतिक आधार दिया|  इस किताब में रेफरेंस काफी खूबसूरती से शामिल किए गए हैं| कुछ इस तरह से कि ऐतिहासिक कहानी होने के बावजूद इसे बोझिल करने की बजाय आगे बढ़ाते हैं| रोमांच बना रहता है|
इस किताब की सबसे बड़ी सफलता है कि यह पढ़ने वाले के मन में  चंपारण सत्याग्रह, सविनय अवज्ञा और नील की खेती को जानने- समझने की जिज्ञासा पैदा करती है| किसी पॉकेट बुक में विस्तृत चर्चा की उम्मीद जबरदस्ती है| ऐसी किताब पाठक को प्रेरित कर सके आगे जानने के लिए यही उसकी सफलता है| इस मामले में ‘जब नील का दाग मिटा : चंपारण 1917’ सफल रहती है|
किताब की कुछ कमियों की भी बात करें तो कई जगह दुहराव है| कुछ पन्ने पहले पढ़ी घटना दोबारा पढ़ना खीझ पैदा करता है| संभवत: ऐसा दो घटनाओं को जोड़ने के लिए किया गया है| फिर भी वह अच्छा नहीं लगता|
यह किताब सिर्फ चंपारण सत्याग्रह की ही बात न करके उन बारीक मुद्दों पर भी बात करती है जिनकी वजह से वहां के किसानों को नील प्लांटरों का रैयत बनना पड़ा| इसमें बंगाल के नील विद्रोह ने प्रमुख भूमिका निभाई| लोअर बंगाल में नील की खेती बंद हुई तो प्लांटरों ने अपर बंगाल ( बिहार) की ओर रुख किया| 1860 में इसे ग्रेट एग्रीकल्चरल इंप्रूवमेंट प्रोजेक्ट नाम दिया गया| इसमें स्थानीय जमींदार, नील प्लांटर और सरकार ही हिस्सेदारी थी| चंपारण में खेती के लिए बेतिया के राजा ने पट्टे दिए| बदले में प्लांटर्स ने कर्ज चुकाने की गारंटी दी| चंपारण सत्याग्रह से जुड़े कई सारे मिथक हैं| यह किताब दावों और मिथकों का तथ्यपरक विश्लेषण करती है|
आखिर में पूरी बात का निचोड़ रखें तो - सीधी- साधी किस्सागोई के अंदाज में लिखी गई इस किताब को हर उस व्यक्ति को पढ़ना चाहिए जो खेती की समस्या को एतिहासिक परिप्रेक्ष में समझना चाहता है, सत्याग्रह, गांधी के भारत में गांधी बनने को जानना चाहता है| यह किताब उन तमाम नायकों के नामों से धूल साफ करती है जिनकी वजह से चंपारण सत्याग्रह सफल हुआ|

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

एक नदी की सांस्कृतिक यात्रा और जीवन दर्शन का अमृत है 'सौंदर्य की नदी नर्मदा'

गड़रिये का जीवन : सरदार पूर्ण सिंह

तलवार का सिद्धांत (Doctrine of sword )

युद्धरत और धार्मिक जकड़े समाज में महिला की स्थित समझने का क्रैश कोर्स है ‘पेशेंस ऑफ स्टोन’

माचिस की तीलियां सिर्फ आग ही नहीं लगाती...

स्त्री का अपरिवर्तनशील चेहरा हुसैन की 'गज गामिनी'

ईको रूम है सोशल मीडिया, खत्म कर रहा लोकतांत्रिक सोच

महत्वाकांक्षाओं की तड़प और उसकी काव्यात्मक यात्रा

महात्मा गांधी का नेहरू को 1945 में लिखा गया पत्र और उसका जवाब

चाय की केतली