महात्मा गांधी का नेहरू को 1945 में लिखा गया पत्र और उसका जवाब

महात्मा गांधी द्वारा 05 अक्तूबर 1945 में जवाहरलाल नेहरू को लिखा पत्र यहां दिया जा रहा है। इस पत्र से यह स्पष्ट हो जाता है कि गांधीजी ने जो कुछ हिन्द स्वराज में लिखा था, उस पर वे अंत तक डटे रहे थे। वे यह भी चाहते थे कि कांग्रेस उनके इस प्रारूप पर विचार करे और काम भी करे। लेकिन जवाहरलाल ने इसे एक सिरे से खारिज कर दिया। नेहरू ने जवाब में भारतीय गाांवों को पिछड़ा और असभ्य कहा। इस पत्र के नीचे जवाब के रूप में नेहरू द्वारा गांधी को लिखा गया पत्र भी है। 
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05 अक्तूबर, 1945

चि. जवाहरलाल,

तुमको लिखने को तो कई दिनों से इरादा किया था, लेकिन आज ही उसका अमल कर सकता हूँ। अंग्रेजी में लिखूं या हिन्दुस्तानी में यह भी मेरे सामने सवाल रहा था। आखिर में मैंने हिन्दुस्तानी में ही लिखने का पसंद किया।

पहली बात तो हमारे बीच में जो बड़ा मतभेद हुआ है उसकी है। अगर वह भेद सचमुच है तो लोगों को भी जानना चाहिए। क्योंकि उनको अंधेरे में रखने से हमारा स्वराज का काम रूकता है। मैंने कहा है कि ‘हिन्द स्वराज‘ में मैंने लिखा है उस राज्य पद्धति पर मैं बिलकुल कायम हूँ। यह सिर्फ कहने की बात नहीं है, लेकिन जो चीज मैंने सन् 1909 में लिखी है उसी चीज का सत्य मैंने अनुभव से आज तक पाया है। आखिर में एक ही उसे मानने वाला रह जाऊं, उसका मुझको जरा-सा भी दु:ख न होगा। क्योंकि मैं जैसे सत्य पाता हूँ उसका मैं साक्षी बन सकता हूँ। ‘हिन्द स्वराज‘ मेरे सामने नहीं है। अच्छा है कि मैं उसी चित्र को आज अपनी भाषा में खेंचु। पीछे वह चित्र सन् 1909 जैसा ही है या नहीं, उसकी मुझे दरकार न रहेगी, न तुम्हें रहनी चाहिए। आखिर में तो मैंने पहले क्या कहा था, उसे सिद्ध करना नहीं है, आज मैं क्या कहता हूँ वही जानना आवश्यक है। मैं यह मानता हूँ कि अगर हिन्दुस्तान को कल देहातों में ही रहना होगा, झोपड़ियों में, महलों में नहीं। कई अरब आदमी शहरों और महलों में सुख से और शांति से कभी रह नहीं सकते, न एक-दूसरों का खून करके – मायने हिंसा से, न झूठ से – यानी असत्य से। सिवाय इस जोड़ी के (यानी सत्य और अहिंसा) मनुष्य जाति का नाश ही है, उसमें मुझे जरा-सा भी शक नहीं है। उस सत्य और अहिंसा का दर्शन केवल देहातों की सादगी में ही कर सकते हैं। वह सादगी चर्खा में और चर्खा में जो चीज भरी है उसी पर निर्भर है। मुझे कोई डर नहीं है कि दुनिया उल्टी ओर ही जा रही दिखती है। यों तो पतंगा जब अपने नाश की ओर जाता है तब सबसे ज्यादा चक्कर खाता है और चक्कर खाते-खाते जल जाता है। हो सकता है कि हिन्दुस्तान इस पतंगे के चक्कर में से न बच सके। मेरा फर्ज है कि आखिर दम तक उसमें से उसे और उसके मारफत जगत को बचाने की कोशिश करूं। मेरे कहने का निचोड यह है कि मनुष्य जीवन के लिए जितनी जरूरत की चीज है, उस पर निजी काबू रहना ही चाहिए – अगर न रहे तो व्यक्ति बच ही नहीं सकता है। आखिर तो जगत व्यक्तियों का ही बना है। बूंद नहीं है तो समुद्र नहीं है। यह तो मैंने मोटी बात ही कही – कोई नई बात नहीं की।

लेकिन ‘हिन्द स्वराज‘ में भी मैंने यह बात नहीं की है। आधुनिक शास्त्र की कदर करते हुए पुरानी बात को मैं आधुनिक शास्त्र की निगाह से देखता हूँ तो पुरानी बात इस नए लिबाश में मुझे बहुत मीठी लगती है। अगर ऐसा समझोगे कि मैं आज के देहातों की बात करता हूं तो मेरी बात नहीं समझोगे। मेरे देहात आज मेरी कल्पना में ही हैं। आखिर में तो हर एक मनुष्य अपनी कल्पना की दुनिया में ही रहता है। इस काल्पनिक देहात में देहाती जड़ नहीं होगा – शुद्ध चैतन्य होगा। वह गंदगी में, अंधेरे कमरे में जानवर की जिन्दगी बसर नहीं करेगा, मर्द और औरत दोनों आजादी से रहेंगे और सारे जगत के साथ मुकाबला करने को तैयार रहेंगे। वहां न हैजा होगा, न मरकी (प्लेग) होगी, न चेचक होंगे। कोई आलस्य में रह नहीं सकता है, न कोई ऐश-आराम में रहेगा। सबको शारीरिक मेहनत करनी होगी। इतनी चीज होते हुए मैं ऐसी बहुत-सी चीज का ख्याल करा सकता हूँ जो बड़े पैमाने पर बनेगी। शायद रेलवे भी होगी, डाकघर, तारघर भी होंगे। क्या होगा, क्या नहीं उसका मुझे पता नहीं। न मुझको उसकी फिकर है। असली बात को मैं कायम कर सकूं तो बाकी आने की और रहने की खूबी रहेगी और असली बात को छोड़ दूं तो सब छोड़ देता हूँ।

उस रोज जब हम आखिर के दिन वर्किंग कमेटी में बैठे थे तो ऐसा कुछ फैसला हुआ था कि इसी चीज को साफ करने लिए वर्किंग कमेटी 2-3 दिन के लिए बैठेगी। बैठेगी तो मुझे अच्छा लगेगा, लेकिन न बैठे तब भी मैं चाहता हूँ कि हम दोनों एक-दूसरे को अच्छी तरह समझ लें। उसके दो सबब हैं। हमारा संबंध सिर्फ राज कारण का नहीं है। उससे कई दरजे गहरा है। उस गहराई का मेरे पास कोई नाप नहीं है। वह संबंध टूट भी नहीं सकता। इसलिए मैं चाहूंगा कि हम दोनों में से एक भी अपने को निकम्मा नहीं समझते हैं। हम दोनों हिन्दुस्तान की आजादी के लिए ही जिन्दा रहते हैं, और उसी आजादी के लिए हमको मरना भी अच्छा लगेगा। हमें किसी की तारीफ की दरकार नहीं है। तारीफ हो या गालियां – एक ही चीज हैं। खिदमत में उसे कोई जगह ही नहीं है। अगर मैं 125 वर्ष तक सेवा करते-करते जिन्दा रहने की इच्छा करता हूँ तब भी मैं आखिर में बूढ़ा हूँ और तुम मुकाबले में जवान हो। इसी कारण मैंने कहा है कि मेरे वारिस तुम हो। कम से कम उस वारिस को मैं समझ लूं और मैं क्या हूँ वह भी वारिस समझ ले तो अच्छा ही है और मुझे चैन रहेगा।

और एक बात। मैंने तुमको कस्तुरबा ट्रस्ट के बारे में और हिन्दुस्तानी के बारे में लिखा था। तुमने सोचकर लिखने को कहा था। मैं पाता हूँ कि हिन्दुस्तानी सभा में तो तुम्हारा नाम है ही। नाणावटी ने मुझको याद दिलाया कि तुम्हारे पास और मौलाना साहब के पास वह पहुंच गया था और तुमने अपने दस्तखत दे दिए हैं। वह तो सन् 1942 में था। वह जमाना गुजर गया। आज हिन्दुस्तानी कहां है उसे जानते हो। उसी दस्तखत पर कायम हो तो मैं उस बारे में तुमसे काम लेना चाहता हूँ। दौड़-धूप की जरूरत नहीं रहेगी, लेकिन थोड़ा काम करने की जरूरत रहेगी।

कस्तुरबा स्मारक का काम पेचिदा है। ऊपर जो मैंने लिखा है वह अगर तुमको चुभेगा या चुभता है तो कस्तुरबा स्मारक में भी आकर तुमको चैन नहीं रह सकेगा, यह मैं समझता हूँ।

आखिर की बात शरत बाबु के साथ जो-कुछ चिनगारियां फूटी है वह है। इससे मुझे दर्द हुआ है। उसकी जड़ मैं नहीं समझ सका। तुमको जो कहा है इतना ही है बाकी कुछ नहीं रहा है तो मुझे कुछ पूछना नहीं है। लेकिन कुछ समझाने जैसा है तो मुझको समझने की दरकार है।

इस सबके बारे में अगर हमें मिलना ही चाहिए तो हमारे मिलने का वख्त निकालना चाहिए।

तुम बहुत काम कर रहे हो, स्वास्थ्य अच्छा रहता होगा। इन्दु ठीक होगी।

बापु के आशीर्वाद
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गांधीजी को नेहरू का उत्तर


आनंद भवन, इलाहाबाद

9 अक्तूबर, 1945

प्रिय बापू ,

    संक्षेप में कहूं तो मेरा मानना है कि हमारे सामने सवाल सच बनाम झूठ और अहिंसा बनाम हिंसा का नहीं है। सभी का प्रयास होना चाहिए कि आपसी सहयोग एवं शांतिपूर्ण रास्ता हमारा ध्येय हो, और एक ऐसे समाज का निर्माण करना हमारा उद्देश्य जो इस रास्ते पर ले जाने को प्रेरित करता हो। सवाल यह है कि ऐसे समाज का निर्माण कैसे हो और इसके अवयव क्या हों? मुझे समझ नहीं आता कि किसी गांव में सच्चाई और अहिंसा पर इतना बल क्यों दिया जाता है? आमतौर पर माना जाता है कि गांवों में रहने वाले लोग बुध्दिमत्ता और सांस्कृतिक तौर पर पिछड़े हुए होते हैं और एक पिछड़े हुए वातावरण में कोई प्रगति नहीं हो सकती। बल्कि संकुचित विचारों वाले लोगों के झूठे व हिंसक होने की संभावना ज्यादा रहती है।
    इसके अलावा, हमें अपने कुछ लक्ष्य भी तय करने हैं, मसलन, खाद्य सुरक्षा, कपड़े, आवास, शिक्षा, स्वच्छता, वगैरह। ये वे न्यूनतम लक्ष्य हैं जो किसी भी देश या व्यक्ति के लिए अनिवार्य हैं। इन उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए हमें यह देखना है कि हम कितनी तेजी से उन्हें हासिल कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त, यातायात के आधुनिक साधनों व दूसरी आधुनिक गतिविधियों का विकास और उनकी निरंतर प्रगति भी मुझे अपरिहार्य लगते हैं। इसके अलावा, मुझे कोई और रास्ता नहीं दिखता। भारी उद्योग भी आज की आवश्यकता है और क्या यह सब विशुद्ध ग्रामीण परिवेष में संभव है? व्यक्तिगत तौर पर मेरा मानना है कि भारी और हल्के उद्योगों का यथासंभव विकेन्द्रीकरण होना चाहिए और बिजली का नेटवर्क बन जाने के बाद यह संभव भी है। देश में अगर दो तरह की अर्थव्यवस्था काम करेंगी तो या तो दोनों के बीच द्वंद्व होगा या एक, दूसरे पर हावी हो जाएगी।
    लाखों-करोड़ों लोगों के लिए महल बनाने का सवाल नहीं है। लेकिन इसका भी कोई कारण नहीं है कि उन सभी को ऐसे सुविधाजनक व आधुनिक घर मिल सकें जहां वे एक अच्छा संस्कारी जीवन जी सकें। इसमें कोई संदेह नहीं है कि कई भारी-भरकम शहरों में बहुत सी बुराइयां घर कर गई हैं। इनकी निंदा की जानी चाहिए। शायद हमें एक सीमा से अधिक शहरों के विकास पर रोक लगानी होगी, लेकिन साथ ही गांव वालों को इस बात के लिए प्रोत्साहित करना होगा कि वे शहरों की संस्कृति में खुद को ढाल सकें।
    उस बात को कई साल हो गए हैं जब मैंने ”हिन्द स्वराज” पढ़ी थी। आज मेरे दिमाग में उसकी कुछ धुंधली सी यादें हैं। लेकिन जब मैंने उसे 20 या अधिक साल पहले पढ़ा था तब भी वह मुझे अव्यवहारिक लगी थी। उसके बाद के आपके लेखों व भाषणों से मुझे लगा है कि आप भी उस समय से काफी आगे निकल चुके हैं और आधुनिक परिवेष को समझने लगे हैं। इसलिए मुझे तब आश्चर्य हुआ जब आपने कहा कि वह पुरानी तस्वीर आज भी आपके दिमाग में बसी हुई है। आपको मालूम ही है कि कांग्रेस ने उस तस्वीर पर कभी विचार ही नहीं किया। उसे स्वीकार करने की बात तो छोड़ ही दीजिए। आपने स्वयं भी कभी इसके लिए जोर नहीं दिया। एकाध मामूली से अपवाद को छोड़ कर। यह निर्णय आपको करना है कि इस तरह के आधारभूत लेकिन दार्शनिक सवालों पर कांग्रेस को विचार भी करना चाहिए। मुझे लगता है कि कांग्रेस जैसे संगठन को इस तरह की किसी बहस में नहीं उलझना चाहिए, जिससे लोगों के दिमाग में उलझन पैदा हो और वे वर्तमान में काम करने में असमर्थ हो जाएं। इससे कांग्रेस और देश के दूसरे लोगों के बीच एक दीवार भी खड़ी हो सकती है। …

आपका ही,
जवाहरलाल
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