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गांधी का नेहरू को आत्मीय पत्र

महात्मा गांधी का नेहरू को पत्र 13 नवंबर 1945 प्रिय जवाहर कल हुई बातचीत से मुझे काफी प्रसन्नता हुई। मैं इस बात पर खेद प्रकट करता हूं कि यह विस्तृत नहीं हो सकती थी। मुझे लगता है कि यह एक बार बैठने पर खत्म नहीं हो सकती है। लेकिन हमारे बीच लगातार इस तरह की बैठकों की जरूरत है। मैं अभी इतना सुगठित हूं कि यदि फिजिकली फिट होने के लिए दौडूं तो तुम्हें पीछे छोड़ दूंगा। दो दिन में मैं वापस लौटकर हम बात करेंगे। मैं पहले भी ऐसा किया हूं। यह इसलिए जरूरी है ताकि हम एक दूसरे को और अपने स्टैंड को भी स्पष्ट तरीके से समझ सकें। ऐसे में जब हम एक दूसरे के दिल में बसते हैं, यह मायने नहीं रखता कि एक दूसरे से कितनी दूर रहते हैं। कल हुई बात से यह पता चला है कि हमारे दृष्टिकोण में बहुत अंतर नहीं है। मैनें क्या समझा है इसके टेस्ट के लिए नीचे लिखा है। कोई विसंगति हो तो मुझे ठीक करें। 1. वास्तविक सवाल - आपके अनुसार मनुष्य में उच्चतम बौद्धिक, आर्थिक, राजनीतिक और नैतिक विकास करने के विचार पर मैं पूरी तरह सहमत हूं। 2.  इसमें सभी को समान अवसर और अधिकार उपलब्ध कराना चाहिए। 3. दूसरे शब्दों में शहर के निवासि

महात्मा गांधी का नेहरू को 1945 में लिखा गया पत्र और उसका जवाब

महात्मा गांधी द्वारा 05 अक्तूबर 1945 में जवाहरलाल नेहरू को लिखा पत्र यहां दिया जा रहा है। इस पत्र से यह स्पष्ट हो जाता है कि गांधीजी ने जो कुछ हिन्द स्वराज में लिखा था, उस पर वे अंत तक डटे रहे थे। वे यह भी चाहते थे कि कांग्रेस उनके इस प्रारूप पर विचार करे और काम भी करे। लेकिन जवाहरलाल ने इसे एक सिरे से खारिज कर दिया। नेहरू ने जवाब में भारतीय गाांवों को पिछड़ा और असभ्य कहा। इस पत्र के नीचे जवाब के रूप में नेहरू द्वारा गांधी को लिखा गया पत्र भी है।  ------------------------------------------------------------------------------------------------------- 05 अक्तूबर, 1945 चि. जवाहरलाल, तुमको लिखने को तो कई दिनों से इरादा किया था, लेकिन आज ही उसका अमल कर सकता हूँ। अंग्रेजी में लिखूं या हिन्दुस्तानी में यह भी मेरे सामने सवाल रहा था। आखिर में मैंने हिन्दुस्तानी में ही लिखने का पसंद किया। पहली बात तो हमारे बीच में जो बड़ा मतभेद हुआ है उसकी है। अगर वह भेद सचमुच है तो लोगों को भी जानना चाहिए। क्योंकि उनको अंधेरे में रखने से हमारा स्वराज का काम रूकता है। मैंने कहा है कि ‘हिन्द स्वराज‘ में

भारत बंद समर्थकों के ' आरक्षण खत्म' और इसे झूठ बताने का सच

किसी भी मूवमेंट और प्रतिरोध में शामिल सारे लोग पीएचडी नहीं होते| जो कि उन्हें अपनी मांगों की बारीक समझ हो| जिस तरह कई अखबार, चैनल, न्यूज पोर्टल यह खबर लिख और चला रहे हैं कि दलितों के बंद में शामिल लोगों को गुमराह किया गया/पता नहीं था| उन्होंने पूछने पर बताया कि आरक्षण खत्म किया जा रहा है| यह सच है कि उन्हें यह बात विस्तार से पता नहीं होगी| लेकिन ऐसा भी नहीं कि उनकी बात झूठ थी| यह पूरा दलित आक्रोश जो कल सड़कों पर दिखा उसकी जड़ सिर्फ एससी एसटी एक्ट न होकर यूजीसी का हलिया फैसला भी है| जिसमें कहा गया है कि यूजीसी कि आरक्षण यूनिवर्सिटी की जगह विभाग को इकाई मानकर दिया जाए| कि विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में शिक्षक भर्ती के लिए शिक्षण संस्थान की जगह विभागों को यूनिट मानकर आरक्षण रोस्टर निर्धारित किया जाएगा। इस व्यवस्था से शिक्षक भर्ती में आरक्षित पदों की संख्या कम हो जाएगी, क्योंकि जिस विभाग में भी तीन या उससे कम पद हैं, वहां सभी पद अनारक्षित हो जाएंगे। उदाहरण के तौर पर इलाहाबाद राज्य विश्वविद्यालय की ही बात करें तो वहां 28 अक्तूबर 2017 को स्कूल ऑफ सोशल साइंसेज, ह्यूमैनिटीज एंड इंटरनेशनल स्टड

असमानता के दुष्चक्र में फंसता लोकतंत्र

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लोगों के बीच लगातार बढ़ती आर्थिक असमानता पूरे देश को ऐसे बम पर बैठा रही है जो कि जब फटेगा तो सब कुछ शून्य कर देगा। यह जितनी देर में फटेगा, उतना ही भयानक होगा। इसका जल्द से जल्द हल खोजना चाहिए। इसके साथ सामाजिक असमानता पर तो कुछ कहने लायक ही नहीं है। वह 70 साल में भी बहुत कम नहीं हो पाई है। अभी राजनीतिक समानता काफी हद तक आ गई है। दलित और पिछड़े भी अपनी राजनीतिक शक्ति को पहचानने लगे हैं। राजनीतिक शक्ति का ही परिणाम है कि वे अब पीड़ित होने पर पुलिस स्टेशन तक जाने की हिम्मत जुटाते हैं। इसके ऊपर अब भी गिने चुने ही पहुंचते हैं। पूरे देश में दो अप्रैल को जाे हुआ, उसे सामाजिक समानता पाने की एक उत्कंठा की तरह भी देखा जा सकता है। एससी एसटी एक्ट एक ऐसे कवच की तरह है जो उन्हें सामंती अत्याचार से बचाता है। बिना सोचे समझे इसके साथ छेड़छाड करना मतलब है बड़े तबके को ठगा महसूस कराना। इसमें बदलाव करना ही है तो यह काम संसद को करना चाहिए। सारे कानूनों का कम या ज्यादा दुरुपयोग हो ही रहा है। इसे ठीक करने के लिए एक कमेटी बनाई जा सकती थी। वह जरूरी सुझाव देती और गलत इस्तेमाल के आंकड़ों को संसद में रखती। इससे कानून