कम्युनिकेशन प्लेटफॉर्म की दासता

illustration : pawel kuczynski
अतिशय निर्भरता कुछ समय बाद दासता का आभास देने लगता हैं| ऐसा लगता है कि 'वह' नहीं होगा तो क्या होगा| लेकिन वास्तव में होता कुछ नहीं, व्यक्ति अपनी जरूरतों के लिए नए विकल्प तलाश ही लेता है|
ऐसा ही कुछ अब कम्युनिकेशन के नए माध्यम या वैकल्पिक माध्यम कहे जाने वाले ऑनलाइन सोशल प्लेटफॉर्म को लेकर है| खासकर फेसबुक पर इस कदर निर्भरता है कि कई बार इसका विकल्प नजर नहीं आता|
कई दिन से मैं फेसबुक अकाउंट डिलीट करने के बारे में  गंभीरता से सोच रहा हूं| इसी क्रम में फेसबुक पर ही एक लाइन लिखा कि क्यों न फेसबुक अकाउंट को मिटा दिया जाए !' इस पर कई हल्के फुल्के कमेंट आए| लेकिन हरिशंकर शाही जी के कमेंट ने सोचने पर थोड़ा विवश किया| उन्होंने उन्होंने कहा - "संवाद से विमुख नहीं होना चाहिए|" लेकिन मैने संवाद से विमुख होने की बात ही नहीं की थी| इसके बवजूद उन्हें फेसबुक से हट जाना मतलब संवाद बंद हो जाना लगा|
इसी संदर्भ में हमें मीडिया 'डिपेंडेंसी' थ्योरी याद आती है| हालांकि इसमें संचार संसाधनों जैसे टीवी, न्यूज एजेंसी या अखबार जैसे माध्यमों पर कुछ लोगों के कब्जा करने और अपने हिसाब से जनता में खबरें दिखाने की बात की गई है| जिसमें जनता/दर्शक/श्रोता/पाठक के पास चुनाव का कोई विकल्प नहीं होता|
सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म खासकर फेसबुक को 'डिपेंडेंसी' से मुक्ति दिलाने वाला समझा जाता है| इसे एक ऐसा वैकल्पिक प्लेटफॉर्म माना जाता है जहां बिना किसी एडिटिंग के न्यूज/व्यूज पब्लिश किए जा सकते हैं| प्रत्यक्ष रूप से कोई सेंसरशिप नहीं है| लेकिन सवाल उठता है कि क्या वास्तव में ऐसा ही है ! इसे जब हालिया यूजर्स के डाटा लीक प्रकरण के आलोक में देखते हैं तो यह  महज एक भ्रम साबित होता है|
यहां खबरों पर सीधे सेंसरशिप न करके एक ऐसा भ्रम तैयार किया जाता है कि आपको-हमको लगता है - बस दुनिया में इतना ही चल रहा है| यूजर जैसा भी सोचता है उसके सामने वैसा ही कंटेंट दिखता हैै| वैसे ही लोगों की प्रोफाइल पर आप 'एड फ्रैंड' दिखते हैं| धीरे-धीरे फ्रैंड लिस्ट ऐसे ही लोगों से भर जाती है जिससे आप सहमत होते हैं|
इसके अलावा यूजर्स के सर्च और एक्टिविटी पैटर्न का एनालिसिस करके वैसे ही कंटेंट दिए जाते हैं| यह सब लॉगरिदम में परिवर्तन करके किया जाता है| यहां तक कि टाइमलाइन पर स्पांसर्ड कंटेंट भी वैसे ही आता है|
फेसबुक/ ट्विटर कोई चैरिटी संस्था नहीं है| यह लाभ कमाने की कंपनी है तो स्वाभाविक सी बात है कि लाभ कमाने की जुगत करेगी| इसे स्वतंत्र सूचना का प्लेटफॉर्म मानकर पूरी तरह आश्रित हो जाना एक दासता ही है|
इन प्लेटफॉर्म को गवर्न करने वाले कई बार ऐसे भी कंटेंट को हटा देते हैं जो आपत्तिजनक नहीं होते| जिल पर अक्सर शोर मचता है| दरअसल इसे एक चेतावनी की तरह लेना चाहिए| ऐसे में जब अमेरिकी चुनाव में फेसबुक के फेक न्यूज प्रमोट करने का आरोप करीब- करीब साबित हो चुका है| यह तो थोड़ी पुरानी घटना हो गई है| ताजा मामला कैंब्रिज एनालिटिका का है| भारतीय फेसबुक यूजर्स का डाटा चुराकर चुनाव प्रभावित किए जाने का बवाल मचा है| इसमें अब इस प्रकरण के ह्विसिल ब्लोअर क्रिस्टोफर वाइली ने तो यह कहकर बड़े गेम के संकेत दिए हैं कि एक पार्टी विशेष को हराने के लिए किसी अरबपति ने पैसे दिए| जिसने लिए उसका केन्या में संभवत: मर्डर किया चुका है| यह सब बताता है कि अभिव्यक्ति के प्लेटफॉर्म के बहाने हम सब यूज किए जा रहे हैं|
हमें अब किसी नए विकल्प के बारे में विचार करना चाहिए| ज्यादा नहीं फेसबुक पर एक सप्ताह तक की आई वायरल खबरों की पड़ताल कीजिए| हमें यकीन है कि कम से कम 50% ऐसे कंटेंट फेक होंगे| इतना कभी किसी मीडियम में नहीं रहा| इसे ही टीवी और प्रिंट मीडियम फॉलो करते हैं न्यू मीडिया और सबसे फास्ट मीडियम कह कर| बेशक इसने अभिव्यक्ति का एक प्लेटफॉर्म दिया | लेकिन प्लेटफॉर्म का यूज प्लेटफॉर्म समझ कर ही करना चाहिए|

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