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मार्च, 2018 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

जनतंत्र का भविष्य - 2

समाजवादी चिंतक/नेता किशन पटनायक ----------------------------------------------------- भारत जैसे देश में जनतंत्र को चलाने के लिए हजारों ( शायद लाखों ) राजनैतिक कार्यकर्ता चाहिए । संसद , विधान सभा , जिला परिषद , ग्राम पंचायत आदि को मिला कर हजारों राजनैतिक पद हैं । प्रत्येक पद के लिए अगर दो या तीन उम्मीदवार होंगे , तब भी बहुत बड़ी संख्या हो जायेगी । इनमें से बहुत सारे कार्यकर्ता होंगे , जिन्हें पूर्णकालिक तौर पर सार्वजनिक काम में रहना होगा तो उनके परिवारों का खर्च कहाँ से आएगा ? भ्रष्टाचार की बात करनेवालों को इस प्रश्न का भी गंभीरतापूर्वक उत्तर ढूँढना पड़ेगा ।     पिछले ५० साल की राजनीति पर हम संवेदनशील हो कर गौर करें , तो इस बात से हम चमत्कृत हो सकते हैं कि हजारों आदर्शवादी नौजवान देश के भविष्य को संदर बनाने के लिए परिवर्तनवादी राजनीति में कूद पड़े थे । आज अगर उनके जीवन इतिहासों का विश्लेषण करेंगे , तो मालूम होगा कि उनमें से अधिकांश बाद के दिनों में , जब उनको परिवार का भी दायित्व वहन करना पड़ा , या तो राजनीति से हट गये या अपने आदर्शों के साथ समझौता करने लगे ।  निजी तथा सार्वजनिक जीवन

जनतंत्र का भविष्य - 1

समाजवादी चिंतक/ नेता किशन पटनायक ----------------------------------------------------- सिर्फ भारत में नहीं , पूरे विश्व में जनतंत्र का भविष्य धूमिल है । १९५० के आसपास अधिकांश औपनिवेशिक मुल्क आजाद होने लगे । उनमें से कुछ ही देशों ने जनतंत्र को शासन प्रणाली के रूप में अपनाया । अभी भी दुनिया के ज्यादातर देशों में जनतंत्र स्थापित नहीं हो सका है । बढ़ते मध्य वर्ग की आकांक्षाओं के दबाव से कहीं – कहीं जनतंत्र की आंशिक बहाली हो जाती है । लेकिन कुल मिलाकर विकासशील देशों में जनतंत्र का अनुभव उत्साहवर्धक नहीं है । नागरिक आजादी की अपनी गरिमा होती है , लेकिन कोई भी विकासशील देश यह दावा नहीं कर सकता कि जनतंत्र के बल पर उसका राष्ट्र मजबूत या समृद्ध हुआ है या जनसाधारण की हालत सुधरी है । अगर भारत में जनतंत्र का खात्मा जल्द नहीं होने जा रहा है , तो इसका मुख्य कारण यह है कि पिछड़े और दलित समूहों की अकांक्षाएँ इसके साथ जुड़ गई हैं ।  अत: जनतंत्र का ढाँचा तो बना रहेगा , लेकिन जनतंत्र के अन्दर से फासीवादी तत्वों का जोर-शोर से उभार होगा । जयललिता , बाल ठाकरे और लालू प्रसाद पूर्वाभास हैं । अरुण गवली , अमर

कम्युनिकेशन प्लेटफॉर्म की दासता

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illustration : pawel kuczynski अतिशय निर्भरता कुछ समय बाद दासता का आभास देने लगता हैं| ऐसा लगता है कि 'वह' नहीं होगा तो क्या होगा| लेकिन वास्तव में होता कुछ नहीं, व्यक्ति अपनी जरूरतों के लिए नए विकल्प तलाश ही लेता है| ऐसा ही कुछ अब कम्युनिकेशन के नए माध्यम या वैकल्पिक माध्यम कहे जाने वाले ऑनलाइन सोशल प्लेटफॉर्म को लेकर है| खासकर फेसबुक पर इस कदर निर्भरता है कि कई बार इसका विकल्प नजर नहीं आता| कई दिन से मैं फेसबुक अकाउंट डिलीट करने के बारे में  गंभीरता से सोच रहा हूं| इसी क्रम में फेसबुक पर ही एक लाइन लिखा कि क्यों न फेसबुक अकाउंट को मिटा दिया जाए !' इस पर कई हल्के फुल्के कमेंट आए| लेकिन हरिशंकर शाही जी के कमेंट ने सोचने पर थोड़ा विवश किया| उन्होंने उन्होंने कहा - "संवाद से विमुख नहीं होना चाहिए|" लेकिन मैने संवाद से विमुख होने की बात ही नहीं की थी| इसके बवजूद उन्हें फेसबुक से हट जाना मतलब संवाद बंद हो जाना लगा| इसी संदर्भ में हमें मीडिया 'डिपेंडेंसी' थ्योरी याद आती है| हालांकि इसमें संचार संसाधनों जैसे टीवी, न्यूज एजेंसी या अखबार जैसे माध्यमों पर

महात्मा गांधी और पर्यावरण

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क्या महात्मा गांधी को 21वीं सदी का समसामयिक पर्यावरणविद कहा जा सकता है? हिंसा और नफरत के दौर से गुजर रही दुनिया को गांधी रास्ता दिखाते हैं। पर्यावरण के संबंध में की गई उनकी टिप्पणियां बताती हैं कि कैसे उन्होंने उन अधिकांश पर्यावरणीय समस्याओं का अनुमान लगा लिया था, जिनका वर्तमान में दुनिया सामना कर रही है। ऐसे वक्त में गांधी की प्रासंगिकता और बढ़ जाती है। 15 अगस्त 2017 को गांधी के पर्यावरणवाद पर दक्षिण अफ्रीका में प्रोफेसर जॉन एस मूलाकट्टू का लिखा हुआ लेख  डाउन टू अर्थ की वेबसाइट पर प्रकाशित हुआ ... ------------------------------------------------------------------ क्या महात्मा गांधी एक मानव पारिस्थिकीविज्ञ थे? यदि हम भारत में पर्यावरण आंदोलन से उत्पन्न विचारों को देखें, जिन पर गांधी जी का काफी प्रभाव रहा है, तो इसका उत्तर निश्चित रूप से “हां” है। मानव पारिस्थिति में आमतौर पर मुख्य जोर पारिस्थितिकी तंत्र के महत्व और कार्यों तथा इस बात पर होता है कि समय के साथ इन तंत्रों को मनुष्य ने कैसे प्रभावित किया है। यह स्पष्ट रूप से एक महत्वपूर्ण विषय है। इसके मूल में अन्य मनुष्यों और पर्या

अपने - अपने राम

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राम के बारे में जब हम सोचते हैं तो कई तरह के राम मिलते हैं| हर राम एक दूसरे से एकदम अलहदा और अलग अर्थ वाले| सबसे कॉमन तुलसी के मर्यादा पुरुषोत्तम राम हैं| जिनके बारे में बचपन से पढ़ते सुनते आ रहे हैं| एक धार्मिक हिंदू परिवार में जन्म लेने की वजह से रामचरित मानस वाले राम से बचपन से परिचित हैं| ये राम करीब - करीब आदर्श हैं| इनके इस कैरेक्टर की शुरुआत आदर्श बेटे के रूप में होती है और आदर्श राजा बनने के प्रयास पर खत्म होती है| जिसमें वे आदर्श भाई भी हैं| वर्तमान में एक बौद्धिक धड़ा उनके आदर्श पति होने पर सवाल खड़ा करता है| इसे लेकर मेरा व्यक्तिगत विचार है कि आदर्श राजा या बहुत बड़ा समाज सुधारक कभी आदर्श पिता या पति नहीं बन पाता| सार्वजनिक जीवन का एक बड़ा बिंदु है| अब इसे आदर्शवाद का ड्रॉ बैक माना जाए या कुछ और| वर्तमान में हम देखते हैं तो गांधी और रूसी क्रांतिकारी लेनिन सबसे बड़े उदाहरण हैं| दोनों के सार्वजनिक जीवन ने उन्हें आदर्श पिता नहीं बनने दिया| दूसरे राम से परिचय इंटरमीडियट और ग्रेजुएशन में हुआ| ये कबीर के राम हैं| निर्गुण ब्रह्म| इस राम का पहले वाले से राम से कोई नाता नहीं ह

अन्ना और जनता की बीच की उफ्फ ये दूरी ...

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अन्ना हजारे की आज एक तस्वीर दिखी। जिसमें वे तिरंगा लिए मंच पर खड़े हैं। इस तस्वीर में उनके और प्रतिरोध के बाकी साथियों के बीच करीब काफी जगह है। इतनी जगह कि अन्ना को चश्मा लगाने के बाद भी किसी सबसे आगे बैठने वाले व्यक्ति का चेहरा भी साफ सुथरा नजर नहीं आता होगा। इस खाली जगह में कुछ लोग तिरंगा हाथ में लेकर फहरा रहे हैं। शायद ये विश्वासपात्र होंगे। यह सब तो आप भी तस्वीर में देख सकते हैं। शायद अन्ना के आंदोलन में शरीक भी हुए हों। करीब से देखे हों। अब अपनी बात - अन्ना प्रतिरोध के बाकी साथियों से इतनी दूर होना हमें कुछ जमा नहीं। इस तरह का व्यवहार अन्ना को वैसे ही एलीट सािबत करता है जिस तरह कोई मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री बुलेट प्रूूफ शीशे के पीछे से बोलता है। मैं मनोविज्ञान तो नहीं पढ़ा हूं लेकिन मेरे विचार से यह एक डर की वजह से किया जााता है। यह डर वास्तविक भी हो सकता है और महज फोबिया भी। कोई राजनीति व्यक्ति ऐसा करता है तो उसे इग्नोर कर दिया जाता है। लेकिन जब कोई आंदोलनकारी ऐसा करता है तो दिल में एक हूक सी उठती है। आंदोन का नेता क्या समझता है अपने आप को ? मजलूम और पीड़ित जनता का उद्धारक ? शा

सोशल मीडिया और हम

फेसबुक ढ़ेर सारे कुओं का समूह है| जिसमें दो चार सौ या हजार मेढ़कों के समूह रहते हैं| हम कुछ लिखते हैं तो उस पर कुछ सौ मेढ़क हां में हैं मिलाते हुए टरटराते हैं| इस तरह हम फ्रैंड लिस्ट में शामिल कुछ हजार या सौ वर्चुअल फ्रैंड्स को सोशल मीडिया का पर्याय समझ लेते हैं| यहां आलोचना न तो खोजे मिलती है और न ही कोई इसे बर्दास्त ही करता है| मैैं टेक्निकल एक्सपर्ट नहीं हूं लेकिन अहसास होता है कि फेसबुक के लॉगरिदम में ही यह फीड है| जो जिस तरह के विचार व्यक्त करेगा उसे उसी तरह का कंटेंट दिखेगा| फेसबुक चलाते हुए यह अहसास होता है कि जो हम लिख रहे हैं उससे हाहाकार मच गया| लेकिन उसे पढ़ा कितने लोगों ने ... दो चार सौ लोगों ने| इससे ज्यादा तो गांधी बिना सोशल मीडिया के कर देते थे| वर्धा में बैठकर चंपारण की खबर रखते थे| एक लेख लिखते थे जिसकी धमक लंदन तक होती थी| जिस कंटेट को हम सोशल मीडिया पर वायरल होना कहते हैं सोचिए कितने लोग उसे शेयर/लाइक करते हैं ? अधिकतम पचास हजार या एक लाख तक| लेकिन फेसबुक यूजर की संख्या कितनी है - भारत में लगभग 25 करोड़ और विश्व में 220 करोड़| अब भारत को ही लीजिए तो 25 करोड़ यूजर मे