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जुलाई, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

#सूरत_डायरी-1

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मैं थोड़ी उमस और चिपचिपाहट भरे दिन में कमरे की फर्श पर लेटा हूं। बाहर धूप-छांव का खेल जारी है। ये जुलाई जब भी आती है, किताबें और पुराने झोले झाड़-पोछकर एक बार फिर स्कूल जाने का करने लगता है। हालांकि स्कूल की पढ़ाई से हमेशा छत्तीस का आंकड़ा रहा है। इस नॉस्टाल्जिया से बचने और समय बिताने के लिए मैं किताब के शरण में ..| यह भी अजीब बात है। आज तक मैं समझ नहीं पाया कि किताब मेरे लिए टाइम पास है या नशा | एक खत्म कर दूसरी की जरूरत महसूस होने लगती है। खैर ...इस धूप-छांव वाले इस द िन में, जब बाहर से बहुत-धीमे-धीमे कौए या किसी गाड़ी के हॉर्न की आवाज भर आ रही है..बाकी सन्नाटा | मैं फ्रेंच पेट्रिक की किताब ' तिब्बत-तिब्बत' पढ़ते वक्त खूबसूरत लाल मिट्टी वाली भूमि पर काल्पनिक रूप से टहल रहा हूं। जिसे कॉमरेड माओ त्से तुंग जेडांग के लाल सैनिकों ने बराबरी लाने की सनक में खून से रंग दिया। हालांकि पेट्रिक लिखते हैं कि यह गुलाम तो 1720 में ही हो गया था। जब छठे लामा की हत्या के बाद सातवें लामा को पकड़कर कासंगी सम्राट ने पोटाला भेज दिया। और उनकी भूमिका महज काठ के उल्लू की रह गई। पेट्रिक

अषाढ़ का एक दिन

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आ समान में काले-सफेद और सिल्की रंगत वाले बादल छाए हैं | इनके बीच से इक्का दुक्का पक्षी उड़ रहे हैं | सुबह आंख मीचते हुए उठकर बालकनी में आया तो समंदर की हवाओं ने माथा चूमकर इस्तकबाल किया | ये मौसम देखकर बरबस ही कालिदास के मेघदूतम् की लाइन ..."ओ अषाढ़ के पहले बादल." फूट पड़ी | इसके आगे की लाइनें न तो याद हैं और न ही याद करने की कोशिश की कभी | दरअसल गाने या कविता की अगली लाइन याद न होना भी मजेदार होता है कई बार | मेरे जेहन में जब भी ये लाइन कुलबुलाती है ..तो कल्पना की भैंस खूंटा तुड़ाकर रोपनी के लिए तैयार किए जा रहे किसी खेत में पहुंच जाती है | वह पानी से लबालब भरे खेत में खुशी से लोटने लगती है | अखबार लाया - पहली खबर पीएम इजरायल गए हैं | हथियारों की बड़ी डील हो सकती है | दूसरी चीन ने फिर से भारत को हड़काया | दूसरी जीएसटी..तीसरी ..रेप, चौथी क्रिकेट ...ब्ला ब्ला ब्ला | अंदर के किसी पन्ने पर मिली ..इतने किसानो ने की सुसाइड ... | अब कितनों ने सुसाइड की ..फर्क नहीं पड़ता | गिनती ही तो हैं | मैनें अखबार किनारे फेंका ..| आ गया फिर से फेसबुक पर | वहां भी ये वाद, वो व