#सूरत_डायरी-1
मैं थोड़ी उमस और चिपचिपाहट भरे दिन में कमरे की फर्श पर लेटा हूं। बाहर धूप-छांव का खेल जारी है। ये जुलाई जब भी आती है, किताबें और पुराने झोले झाड़-पोछकर एक बार फिर स्कूल जाने का करने लगता है। हालांकि स्कूल की पढ़ाई से हमेशा छत्तीस का आंकड़ा रहा है। इस नॉस्टाल्जिया से बचने और समय बिताने के लिए मैं किताब के शरण में ..| यह भी अजीब बात है। आज तक मैं समझ नहीं पाया कि किताब मेरे लिए टाइम पास है या नशा | एक खत्म कर दूसरी की जरूरत महसूस होने लगती है। खैर ...इस धूप-छांव वाले इस द िन में, जब बाहर से बहुत-धीमे-धीमे कौए या किसी गाड़ी के हॉर्न की आवाज भर आ रही है..बाकी सन्नाटा | मैं फ्रेंच पेट्रिक की किताब ' तिब्बत-तिब्बत' पढ़ते वक्त खूबसूरत लाल मिट्टी वाली भूमि पर काल्पनिक रूप से टहल रहा हूं। जिसे कॉमरेड माओ त्से तुंग जेडांग के लाल सैनिकों ने बराबरी लाने की सनक में खून से रंग दिया। हालांकि पेट्रिक लिखते हैं कि यह गुलाम तो 1720 में ही हो गया था। जब छठे लामा की हत्या के बाद सातवें लामा को पकड़कर कासंगी सम्राट ने पोटाला भेज दिया। और उनकी भूमिका महज काठ के उल्लू की रह गई। पेट्रिक