बिन पानी कैसा विकास


देश में गहराते सूखे को प्राकृतिक संकट कह के अब हम अपनी गर्दन नहीं छुड़ा सकते। इसके पीछे विकास के नाम पर किए गए कई ऐसे कार्य हैं, जिसके लिए सीधे तौर पर हम सब जिम्मेदार हैं। वरन् राजस्तान के रेगिस्तान से लेकर कच्छ के रण तक पानी की कमी से इंसान के जीवन की बेल मुरझा ही नहीं सकती। इन दोनों स्थानों पर क सबसे कम बारिश होती है। इसके बावजूद वहां मानव बस्तियां हैं, बहुरंगी लोक-रंग हैं।

इसके उलट कभी मंजीरा, तिरना और घरनी जैसी नदियों से सिंचित लातूर एक एक बूंद पानी के लिए तरसता है। बुंदेलखंड सैकड़ों की संख्या में चंदेल कालीन तालाबों के बावजूद प्यास से मरता है । ऐसा क्यों है ? दरअसल इसका एक जी जवाब है, उपेक्षा। हमने जल संरक्षण के तरीकों को उपेक्षित किया। 


थोड़ा सा इतिहास पलटते हैं तो, भारत में जल संरक्षण की परंपरा सदियों पुरानी रही है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी जलसंरक्षण की कला और तकनीक स्थानांतरित होती रही। अंग्रेज जब आए उस वक्त देश में करीब 25 लाख तालाब थे। वह भी बिना किसी जल संरक्षण विभाग के। 

देश के नए निज़ाम ने अपने यूरोप की तरह यहां भी हर चीज का लिखित साक्ष्य खोजना शुरू किया। नतीजा हुआ कि तालाबों और कुओं की मौत। यह मौत शब्द हमने इसलिए प्रयोग किया क्योंकि तालाब और कुंए मात्र गड्ढे नहीं होते। उनके पूरी तरह बनने मेें लंबा वक्त लगता है। किसी इंसान की तरह उनके भी देखभाल की जरूरत होती है। 

अंग्रेेजों ने हमारे परंपरागत जल संरक्षण के तरीकों की उपेक्षा की तो इसे माना जा सकता है। लेकिन आजादी के बाद सत्ता हमारे लोगों के हाथ में थी, हम इसके लिए मांग कर सकते थे। पर ऐसा कुछ नहीं किया या इतना कम किसा कि उससे कुछ फर्क नहीं पड़ा। तालाब अपनी मौत मरते रहे। 

आज़ादी के बाद अत्याधुनिक नगरीकरण योजना में सडक़ें, बुलट ट्रेन, बिजली और हाई स्पीड इंटरनेट जैसी सुविधााओं के बारे में तो सोचा गया। पर उन शहरों के भू जल को रिचार्ज करने के तरीकों के बारे में भी सोचा गया ? शायद नहीं, तालाब और कुएं कभी इस नगरीकरण योजना का हिस्सा ही नहीं रहे। 

योजना बनाते वक्त हम इस सवाल का जवाब देने से पूरी तरह से मुकर गए कि जो चमचमाता शहर खड़ा होगा उसका भू-जल रिचार्ज कैसे होगा। भू जल को चूसने की व्यवस्था तो भरपूर होगी पर रिचार्ज भी तो होना चाहिए। 

नतीजन देश के जितने भी बड़े शहर हैं, वे अपने आस-पास के ग्रामीण इलाकों पर निर्भर हैं। वे गांवों के हिस्से का पानी छीन कर अपनी प्यास बुझाते हैं।

शहरी विकास की हवा धीरे-धीरे गांवों की तरफ भी पहुंच रही है। वहां भी तालाब को एक ऐसे गड्डे के रूप में देखा जाने लगा है, जो सिर्फ जमीन घेरा है। ऐसे में लोग पुराने तालाबों को जल्दी से पाटकर समतल कर देना चाहते हैं। जब कि गांव का पूरा जीवन ही तालाबों और कुओं के इर्द-गिर्द घूमता है। धर्म-परंपराएं सब में तालाब और कुंए जुड़े हैं।

पांच-छ: साल पहले तक जमीन में अधिकतम 40 फुट बोर करने पर भरपूर पानी निकता था, अब वहां 100 से 200 फुट बोर करने के बाद भी पानी की किल्लत बनी हुई है।

इस पर सोचना चाहिए कि जब ग्रामीण भारत से भी ये भूजल रिचार्ज सेंटर खत्म हो जाएंगे, तब हमारे शहरों को पानी कहां से मिलेगा। नदियों के पानी को तो पीने लायक छोड़ा नहीं, जमीन में भी पानी नहीं रह जाएगा तब ? 

जल संकट जैसी गम्भीर समस्या से निपटने का एक ही उपाय है, फिर से तालाब-कुओं की टूटी परंपरा को जोड़ा जाए। इन्हें ढ़ाचागत विकास का अनिवार्य हिस्सा बनाया जाए। मै समझता हूं यह कार्य जितना बेहतर सरकारी सिस्टम कर सकता है, उससे कहीं बेहतर समाज कर सकता है। 

सरकार मनरेगा जैसी योजनाओं से तालाब के रूप में सिर्फ गड्ढे खोद सकती है, उसे तालाब बनाने का काम समाज के लोगों का है। जब तक ऐसे उपाय नहीं किए जाते, सूखे का फंदा कसता जाएगा, सरकारी मशीनरी ट्रेन से पानी ढ़ोने की कोशिश करके अपना फर्ज निभाती रहेगी।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

एक नदी की सांस्कृतिक यात्रा और जीवन दर्शन का अमृत है 'सौंदर्य की नदी नर्मदा'

गड़रिये का जीवन : सरदार पूर्ण सिंह

तलवार का सिद्धांत (Doctrine of sword )

युद्धरत और धार्मिक जकड़े समाज में महिला की स्थित समझने का क्रैश कोर्स है ‘पेशेंस ऑफ स्टोन’

माचिस की तीलियां सिर्फ आग ही नहीं लगाती...

स्त्री का अपरिवर्तनशील चेहरा हुसैन की 'गज गामिनी'

ईको रूम है सोशल मीडिया, खत्म कर रहा लोकतांत्रिक सोच

महत्वाकांक्षाओं की तड़प और उसकी काव्यात्मक यात्रा

महात्मा गांधी का नेहरू को 1945 में लिखा गया पत्र और उसका जवाब

चाय की केतली