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जून, 2016 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

बिन पानी कैसा विकास

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दे श में गहराते सूखे को प्राकृतिक संकट कह के अब हम अपनी गर्दन नहीं छुड़ा सकते। इसके पीछे विकास के नाम पर किए गए कई ऐसे कार्य हैं, जिसके लिए सीधे तौर पर हम सब जिम्मेदार हैं। वरन् राजस्तान के रेगिस्तान से लेकर कच्छ के रण तक पानी की कमी से इंसान के जीवन की बेल मुरझा ही नहीं सकती। इन दोनों स्थानों पर क सबसे कम बारिश होती है। इसके बावजूद वहां मानव बस्तियां हैं, बहुरंगी लोक-रंग हैं। इसके उलट कभी मंजीरा, तिरना और घरनी जैसी नदियों से सिंचित लातूर एक एक बूंद पानी के लिए तरसता है। बुंदेलखंड सैकड़ों की संख्या में चंदेल कालीन तालाबों के बावजूद प्यास से मरता है । ऐसा क्यों है ? दरअसल इसका एक जी जवाब है, उपेक्षा। हमने जल संरक्षण के तरीकों को उपेक्षित किया।  थोड़ा सा इतिहास पलटते हैं तो, भारत में जल संरक्षण की परंपरा सदियों पुरानी रही है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी जलसंरक्षण की कला और तकनीक स्थानांतरित होती रही। अंग्रेज जब आए उस वक्त देश में करीब 25 लाख तालाब थे। वह भी बिना किसी जल संरक्षण विभाग के।  देश के नए निज़ाम ने अपने यूरोप की तरह यहां भी हर चीज का लिखित साक्ष्य खोजना शुरू किया। नत

माचिस से रोमांस....

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साभार: Korekgraphy 

माचिस की तीलियां सिर्फ आग ही नहीं लगाती...

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Korekgraphy फोटोग्राफी की ही एक विधा है। इसमें माचिस की तीलियों के सहारे बनाए मॉडल्स को शूट करके कोई कहानी कही जाती है। यह हमें इंटरनेट की गलियों में बस यूं ही भटकते हुए मिल गया। वास्तव में इन रचनाओं के बारे में बताने के लिए किन्हीं शब्दों की जरूरत नहीं है। साभार : Korek aphy.com