एक आदमी


वर्षों पहले मैने देखा था 
एक ऐसा आदमी 
जो मोटर नहीं बैलगाड़ी से चलता था 
दो-चार मील पैदल ही
नापा करता था
उसके पास न तलवार होती थी
न कोई बंदूक
होती भी क्यों ! 
वह न किसी से लड़ता था 
न ही रखता था खजाने का संदूक 
उसका रंग श्रम की आंच पर तपकर
लोहे जैसा हो गया था 
उसे देखकर गाना गाते थे हम
लोहे जैसा रंग है तेरा, चांदी जैसे बाल
नाक और कान के पोरों पर लटकी 
पसीने की तेजाबी बूदें मोतियों का अहसास कराती थीं |
बदन से उठती स्वेद गंध 
श्रम की महक लगती थी 
..............................
वह आदमी
सूरज के जगने से पहले 
बिना अलार्म के मुर्गे की बांक पर जगता था 
उसके कंधे पर लटकता था 
मछली मारने का जाल
या फावड़ा कुल्हाड़ी 
कई बार देखा जाता था
हंसिया-हथौड़ा भी साथ लटकाए 
शायद वह नहीं जानता रहा होगा 
कार्ल मार्क्स, लेनिन स्टालिन, माओ को 
ना ही उसने सुना होगा कभी 
किसी वोल्सविक क्रांति के बारे में 
पर मुझे वह लगता था सच्चा साम्यवादी 
......................................
उसका अपनों से 
कोई संघर्ष नहीं था 
उसने कभी जमींदार तक से 
बगावत नहीं की,
मछली के ठेकेदारों को बराबर हिस्सा देता 
पता नहीं क्यों ? 
उसका संघर्ष था नदी की धाराओं से
समंदर की लहरों से 
गेंहू और रोटी से 
मैं कई बार उससे पूछना चाहता था
कि उसने कभी बगावत क्यों नहीं की ? 
पर नहीं पूछ पाया .... पता नहीं क्यों
.........................................
शायद मैं जानता था उसे 
मेरे आसपास का ही या कहो 
परिवार से ही, दादा या परदादा था
वह अब भी जिंदा है पर मेरे भीतर कहीं 
वह बेहद जर्जर है, उसकी गाड़ी टूट चुकी है
बैल मर चुके हैं, जमीनें छिन चुकी हैं 
नदी समंदर पर किसी और का कब्जा है 
उसकी कुल्हाडी थोड़ी 
भोथरी हो ग़़ई है फिर भी...
फिर भी मुझे लगता है
वह खड़ा होगा एकदिन 
इसबार बगावत करेगा 
अपने मालिकों से

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