महिलाएं आत्मनिभर्र बनने के लिए बड़ी संख्या में घरों से दूर शहरों में काम खोज रही हैं। कुछ पढ़ी-लिखी महिलाएं मल्टीनेशनल कंपनियों में काम करती हैं तो अनपढ़ महिलाएं शहरी घरों मेें।काम दोनों करती हैं, पर एक को महिला सशक्तीकरण का चेहरा माना जाता है और दूसरे पर किसी का ध्यान नहीं जाता।
यह सुबह से शाम तक अलग-अलग घरों में बर्तन धुलती हैं, खाना बनाती हैं, कहने को भले ही यह कामगार हैं पर इन्हें सिर्फ नौकरानी समझा जाता है। एक अनुमान के मुताबिक भारत में लगभग 9 करोड़ से अधिक घरेलू कामगार महिलाएं हैं।
इनके साथ तरह-तरह की क्रूरता, अत्याचार, और शोषण होता है पर कोई संगठन न होने की वजह से इनकी आवाज दब कर रह जाती है। आए दिन ऐसे मामले अखबारों की सुर्खियां बनते हैं, पर कभी उन पर समाज में व्यापक बहस नहीं होती है। व्यापक बहस तो छोडि़ए लोगों के लिए ऐसे मामले चर्चा का विषय भी नहीं बनते सामान्य रूप से, जबतक कि कोई बड़ी वारदात न हो। ज्यादातर महिला कामगारों की चीखें कोठियों की चारदीवारी में घुटकर रह जाती है। रोज-रोटी छिनने के डर से वे अपने साथ हो रहे जुल्म की शिकायत भी नहीं कर पाती हैं।
घरेलू कामगार महिलाऐं आजीविका के लिए सुबह से शाम तक लगातार काम करती हैं। अत्यधिक काम का बोझ उनकी सेहत पर भी बुरा असर डालता है, पर मजदूरी कटने के डर से वे छुट्टी नहीं कर पाती हैं। देश मेें लाखों घरेलू कामगार महिलाएं हैं, पर उनके काम को गैर उत्पादक की श्रेणी में रखा जाता है। इनका कोई निश्चित मेहनताना नहीं होता है, यह पूरी तरह से मालिक पर निर्भर करता है।
ज्यादातर घरेलू कामगार महिलाएं आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़े वंचित वर्ग से आती हैं। उनका यह पिछड़ापन उनके लिए और भी समस्याएं पैदा करता है। इनके साथ यौन उत्पीडऩ, चोरी का आरोप, गालियां और घर के अंदर शौचालय आदि के प्रयोग की मनाही जैसी बातें सामान्य होती हैं।
देश में असंगठित क्षेत्र के कामगारों के लिए सामाजिक सुरक्षा कानून है, जिसमें घरेलू कामगारों को भी शामिल किया गया है, पर राष्ट्रीय स्तर पर कोई ऐसा कानून नजर नहीं आता, जिससे इनकी स्थिति में बदलाव आए। हां महिलाओं के लिए कार्य स्थल पर यौन हिंसा जैसे अपराध को रोकने के लिए कानून बना है, उसमें घरेलू कामगारों को भी शामिल किया गया है।पर जरूरत इससे आगे की है।
जो कानून बने हैं उनका ठीक से पालन हो और निजी क्षेत्रों के कामगारों के जैसे इनका भी न्यूनतम वेतन, काम के घंटों का निर्धारण, साप्ताहिक अवकाश जैसी सुविधाएं मिलें।
यदि इन्हें कामगार का दर्जा मिल जाए तो वे भी इज्जत की जिंदगी बिता सकें। कुछ राज्यों में ऐसे कानून बने हैं, पर सभी जगहों पर नही हैं। जरूरत है इनके लिए एक राष्ट्रीय कानून की। इसके बावजूद भी असल लड़ाई तो उस सामंती सोच की है, जिसे दूर किए बिना इन घरेलू कामगारों को सम्मान की जिंदगी मिलना मुश्किल है।
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