कौन बदले ? जेएनयू या सरकार

तस्वीर साभार: इंडियन एक्सप्रेस

एक आम नजरिए से देखा जाए तो जेएनयू या किसी भी संस्था में देश विरोधी, और सजा पाए आतंकी के समर्थन मेें नारे लगाना गलत हो सकता है। क्योंकि हर कोई यही दलील पेश करेगा कि जिस देश में रहते हो उस देश के खिलाफ कैसे बोल सकते हो । पर जब हम इसे एक प्रबुद्ध नागरिक और नजरिए का विस्तार करके देखने की कोशिश करते हैं तो यह गलत और अटपटा तो लग सकता है पर देशद्रोह तो कतई नहीं हो सकता।

 

सबसे पहले कथित तौर पर जेएनयू में अफजल गुरु के लिए लिए लगाए नारों को ही ले लेते हैं। आपको पता होगा कि संसद भवन पर हमले के आरोप में कुल तीन लोगों को गिरफ्तार किया गया था। जिनमें से दो को अदालत ने रिहा कर दिया था और अफजल गुरु को फांसी की सजा दी सुनाई गई थी।

 

फांसी गलत थी या सही इसपर मेरे मानने या न मानने से कोई खास फर्क नहीं पडऩे वाला, पर हां कानूनविदों और के मानने से जरूर पड़ता है। कई  विधि विशेषज्ञों ने फांसी के समय इसे गलत ठहराया था। उन्होनें इसमें कई न्यायिक खामियां गिनाई थी। काटजू ने तो खुलेआम कहा था कि यहां न्यायिक गलती हुई है। और तो और फैसला सुनाते वक्त जूरी ने यह भी कहा था कि इस तरह के फैसले के लिए व्यापक जनदबाव था।

 

अब आप फैसले को सिर आंखों पर बैठाना चाहते हैं तो बेशक बैठाइए पर कई ऐसे भी होंगे जो इस फैसले को गलत ठहराएंगे। आप उनके  इस असहमति का अधिकार तो नहीं छीन सकते ना। भारतीय न्यायिक प्रक्रिया  से असहमत होने के और भी कई कारण  हो सकते हैं, जैसे पिछली सरकार में कई ऐसे मुस्लिम युवा आतंक के शक में गिरफ्तार किए गए और कई साल जेल की हवा खाए, आखिर में अदालत ने निर्दोष करार दिया। अब ऐसे लोग आपकी न्यायिक व्यवस्था से असंतुष्ट तो होंगे ही, जो कि उनका हक है। अब आप क्या करेंगे उनका गला दबा देंगे या देशद्रोह लगा देंगे।

 

इनके लिए आवाज उठाने वाले भी इसी देश और समाज से आते हैं। भले ही उनकी आवाज को देश के बहुमत का समर्थन न हासिल हो, उनकी चेतना राष्ट्र की सामूहिक चेतना भले ही शामिल न हो। क्या लोकतंत्र में सिर्फ बहुमत वाले के साथ न्याय है या सारे अधिकार बहुमत वाले को मिलते हैैं ?

 

कुछ लोगों ने कथित तौर पर भारत विरोधी और कश्मीर की आजादी के सर्मथन में भी नारे लगाए। इसका अभी सिद्ध होना बाकी है कि किसने लगाए। यह एक बार साबित हो भी जाए  तो क्या इसे देशद्रोह मान लेना चाहिए ?

 

सबसे पहले तो यही जान लेना चाहिए कि जेएनयू भी इसी समाज का हिस्सा है। यहां देश के कोने कोने से युवा पढऩे आते हैं। सबका अलग अलग बैकग्राउंड होता है। इसे लघु भारत के तौर पर देखा जा सकता है।

 

यहां कश्मीरी आतंक के बीच का भी युवा आता है, नार्थ ईस्ट से भी। वह युवा जिसने कश्मीर में सेना की ज्यादतियां देखी हैं, जिनके घरों से सेना पूछताछ के लिए ले जाती है और वह फिर कभी नहीं लौटता, उसके लिए भारत का मतलब क्या होगा? क्या देशभक्ति नारे लगाने से पहले कभी सोचा है ?

 

सेना और हमारे बीच काफी दूरी है जिसके कारण सिर्फ उसकी अच्छाई जानते हैं। इसलिए सेना के जवानों की शहादत हमारे लिए देशभक्ति हो सकती है। पर जिसने अस्फपा को करीब से देखा होगा उसके लिए इन सबके क्या मायने हैं।

 

आपकी आंखों में देशभक्ति का नशा छाने के कारण वे मणिपुरी औरतें बिल्कुल नहीं दिखाई पड़तीं जिन्होंने सुरक्षाबलों से आजिज आकर निर्वस्त्र आंदोलन को विवश थीं और ‘इंडियन आर्मी रेप अस’ के नारे लगाए। आपको पिछले 15 सालों से भूख हड़ताल कर रही इरोम शर्मिला भी बिल्कुल नजर नहीं आतीं।

 

हमारे और आपको क्यों यह सब नजर नहीं आता, सरकार इन सब मुद्दों पर बात तक करना उचित नहीं समझती। पता नहीं सवालों से डरती है या खुद को तानाशाह समझती है। अब जरा क्या कोई बताएगा कि ऐसे माहौल से निकला युवा किस तरह खुद को भारत का नागरिक समझेगा?

 

यह मत समझिएगा कि यह पहली बार उठ रहा है। ये  सवाल हमेशा सुलगते हैं, हर जगह सुलगते हैं, जब जब किसी आम कश्मीरी को आतंकी और नार्थ ईस्ट वाले को चिंकी या चीनी कहा जाता है तब तब सुलगते हैं। पर अक्सर या तो मीडिया उन्हें तवज्जो देना ठीक नहीं समझता या उसे उससे टीआरपी की उम्मीद नहीं होती। यहां जेएनयू में टीआरपी भी खूब मिल रही है और वोट बैंक भी बनते दिख रहा है।

 

हम नहीं चाहते कि किसी के घर अफजल गुरु या परेश बरुआ निकले  और भारत को विखंडित करने के बारे में सोचे भी । पर क्या हम जरा सा ठहर कर उनके दर्द को समझ नहीं सकते, सरकार और मीडिया उनकी बातों को भी नहीं सुन सकती ? क्या भारत का मतलब सिर्फ एक ऐसे राजसत्ता का रह गया है जो सिर्फ कुछ ही लोगों के बारे में सोच सकती है, नीतियां बना सकती है?

 

ये सवाल कुछ कठिन और चुभते हुए जरूर लग सकते हैं पर इन्हें कभी इग्नोर नहीं किया जा सकता। यहां बात बात पर देशद्रोही होने का ठप्पा लग जाता है। क्या व्यवस्था पर सवाल उठाना गलत है? अगर नहीं तो क्यों अरुंधिती राय, प्रो. साईं, असीम त्रिवेदी और कुडनकुलम परमाणु परियोजना पर सवाल उठाने वाले लोगोंं पर देशद्रोह के मुकदमें ठोके गए?

 

अगर आप इन सबको देशद्रोही मानते हैं और व्यवस्था पर सवाल खड़े करना गलत समझने लगे हैं तो यह समझ लेना चाहिए कि आपके लोकतंत्र के दिन पूरे हो गए हैं। आप लोकतंत्र की पगडंडी पर पं. नेहरू, अंगम्बेडकर और गांधी द्वारा चलने की सिखलाई कब का भूल चुके हैं। वह लोकतंत्र ही कैसा जहां का नागरिक सवाल उठाना भूल जाए।

 

हम छाती चौड़ी करके मजबूत लोकतंत्र का दम भले ही भरते रहेंं पर यह समझ लीजिए जबतक शिक्षा के मांगने पर अपने ही युवाओं पर लाठियां बरसाएंगें, अपने ही देश के आदिवासियों को खदेडऩे के लिए उनपर गोलियां चलाएंगे तब तक यह लोकतंत्र मजबूत नहीं हो सकता। हर लाठी और हर गोली से  सिफ लोकतंत्र केे पतन की कहानी ही लिखेगी।

 

दुनिया के किसी भाी विकसित और लोकतान्त्रिक  देश के विश्वविद्यालयों को उठाकर देख लीजिए वहां पर्याप्त स्पेश दिया जाता है। अमेरिका में तो तीन तीन बड़े छात्र आंदोलन हो चुके हैं। सबसे पहला 1965 के अमेरिका वियतनाम युद्ध के समय। इसमे मिशिगन यूनिवर्सिर्टी के छात्रों ने युद्ध के खिलाफ प्रदर्शन किया। आपको पता होगा कि यह लड़ाई अमेरिका हार भी गया था। कोई देशद्रोह का केस नहीं हुआ। दूसरा 1965 -73 भी हुआ । इसमें अमेरिकी झंडे तक जलाए गए। कोई देशद्रोह नहीं माना गया।

 

तीसरा कोलंबिया यूनिवर्सिटी में साल 1968 में हुआ। दरअसल कुछ हथियार कंपनियों ने वियतनाम में अमेरिका को लडऩे के लिए उकसाया था। यह उनके खिलाफ था। इसमें भी अमेरिका विरोधी नारे लगाए गए। पर कोई केस नहीें दर्ज किया गया। फिर 2003 में पूरे अमेरिकी विश्वविद्यालयों में इराक युद्ध के विरोध में प्रदर्शन हुए।

 

ब्रिटेन के ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय में तो बकाये से आयोजन होते हैं जिसमे सरकार और उसकी नीतियों की खुल कर आलोचना होती है, विमर्श होता है।  कुछ लोग यह भी दलील देने लगे है की जेएनयूजनता के टैक्स से चलता है। उनके लिए जवाब है कि जैसे जनता के पैसे से नेता लोगों सुविधाएं भोगने का हक़ है उसी तरह विश्वविद्द्यालयों  चलने का भी, बल्कि यह तो शिक्षा पर खर्च हो रहा।

 

छात्रों पर जुल्म  अफ्रीका के तीसरी दुनिया कहे जाने वाले देशों और चीन में ढ़ाए जाते हैं। अब फैसला आपको करना है कि आप विकसित बनना चाहते हैं या कुछ और। आखिर क्यों अमेरिका और ब्रिटेन के  इतनी आजादी हासिल है विश्वविद्यालयों में ?

 

दुनिया में कुछ स्‍थान ऐसे होने चाहिए जो श्‍लील-अश्‍लील, शुद्ध-अशुद्ध, अपने-पराए, देशी-विदेशी, पुरुष-स्‍त्री, बड़े-छोटे, शिक्षित-अशिक्षित आदि की सीमाओं से ऊपर उठकर विचारों की पड़ताल करे।  अगर देश के एक आदमी के दिमाग में भी कोई विचार या कोई सवाल आता है तो उसके लिए स्‍थान होना चाहिए और उस विचार के तमाम पहलुओं पर खुले मन से बात होनी चाहिए। इसके लिए सबसे उचित स्थान विश्वविद्यालय होता है। 

 

शायद यही विश्वविद्यालय का सच्चे अर्थों में मायने भी होता है। यहां अलग अलग सोच व विचारधाराओं को पुष्पित और पल्लवित होने का मौका मिलता है। यही वह जगह होती है जहां  रवींद्र नाथ टैगोर की बात ‘where  mind  is  without  fear’ अक्षरश: लागू हो सकती है। देश में जेएनयू इस मामले में पूरी तरह खरा उतरता है। वह सभी को मौके देता है। चाहे किसी विचार को मानने वाला कोई अकेला ही क्यों न हो।

 

हमारा देश इतना कमजोर नहीं है और हमारी देशभक्ति इतनी नाजुक नहीं है कि मुट्ठी भर लोगों की खुराफाती बातों से वह खतरे में पड़ जाए। इसलिए हम कहते हैं कि सरकार जेएनयू को न बदलकर अपने तौर तरीकों में बदलाव लाए। विश्वविद्यालय के  मायने, लोगों की भावनाएं, विचार और सवालों को सुनने व समझने की कोशिश करे।

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