‘मालदा’ लिटमस टेस्ट का शिकार तो नहीं !

Malda violence 
चुनाव के चौाखट पर खड़े मालदा के कलियाचक कस्बे में अचानक हुई हिंसा के बाद से राजनीतिक गलियारों में भी गहमागहमी बढ़ गई है। हर घटना की तरह इस बार भी अराजकता की  आंच पर स्वार्थ की रोटियां सेंकी जा रही हैं।

घटना के कारणों के तह में जाएं तो सरसरी तौर पर इसका कारण पैगम्बर मोहम्मद साहब पर  हिन्दू महा सभा के नेता कमलेश तिवारी द्वारा  की गई टिप्पणी को माना जा रहा। जिसके कारण लगभग पूरे देश में विरोध का सुर दिखाई पड़ा।
बताया गया कि मालदा में लगभग ढ़ाई लाख मुस्लिम सडक़ों पर उतरे। इसे एक सिरे से  स्व स्फूर्त  आक्रोश मानना मुश्किल है। इतनी बड़ी भीड़ इकठ्ठा  करने के लिए निश्चित तौर पर किसी न किसी ने योजना बनाई होगी।

 अन्य कारणों में बताया गया कि मालदा  और और आसपास बड़े पैमाने पर ड्रग माफियाओं द्वारा गांजा और अफीम की खेती कराई जाती है। जिसको बीएसएफ और नार्कोटिक्स ने मिलकर नष्ट करने का अभियान चलाया। इससे व्यथित होकर माफियाओं ने मालदा की पूरी साजिश रची।

हालांकि दोनों में से कोई भी कारण अभी तक पुख्ता नहीं हो सका है। ऐसे में सवाल है कि कौन था वह शख्स या संगठन, उसका पता लगाया जाना चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं हो रहा।

घटना के बाद प. बंगाल सरकार को जहां इसकी तत्काल जांच करानी चाहिए वहीं वह, घटना की जिम्मेदारी बीजेपी के मत्थे मढ़ रही है और बीजेपी तृणमूल पर।

दोनों के रवैए से एक बात साफ तौर पर जाहिर हो रही है कि दोनों सत्तासीन पार्टियां इस मुद्दे को हवा देकर अपने अपने राजनीतिक हित साधने की जुगत मेंं लगी हैं। अगले साल बंगाल चुनाव के कारण तृणमूूल और भाजपा दोनों को लाशों पर वोट नजर आ रहा।

यहां ममता सरकार की जिम्मेेदारी बनती थी कि वह एक जांच दल का गठन करे और दोषियों को सजा दी जा सके पर दुर्भाग्य से उसने ऐसा नहीं किया। वहीं भाजपा की भी जिम्मेवारी जांच के लिए एक सर्वदलीय जांच दल भेजने की बनती थी, जिसमें युवा सांसद होते। लेकिन उसने ऐसा करने के बजाए पार्टी नेताओं का एक दल भेेजना उचित समझा। जो कि कतई सही नहीं कहा जा सकता। दल को ममता बनर्जी सरकार ने बैरन वापस कर दिया।

इस तरह साफ है कि दोनों पार्टियां इस मामले को हवा देकर चुनाव की फिजा को अपने-अपने पक्ष में करने के फिराक में हैं। ममता सरकार को जहां मुस्लिम वोट बैंक नजर आ रहा वहीं भाजपा को हिंसा के शिकार गैर मुस्लिमों का वोट।

भाजपा का यह चरित्र कोई नया नहीं है। अगर उसके पूर्व के  चुनावी रणनीतियों पर गौर किया जाए तो कुछ को छोडक़र अक्सर सभी भी मेें जीतने के लिए हिंदू मुस्लिम मुद्दा उछाला जा चुका है।

साल 2016 में जहां असम और पश्चिम बंगाल में तो 2017 में उत्तर प्रदेश में  विधानसभा चुनाव होने हैं। ऐसे में मालदा को एक लिटमस टेस्ट के तौर पर भी देखा जा सकता है।  आगे यह टेस्ट असम में भी बंग्लादेशी मुस्लिम बनाम हिंदू के तौर पर किए जाने की पूरी संभावना है।

उत्तर प्रदेश में भी अघोषित तौर पर चुनावी बिगुल बज ही चुका है। ऐसे में यहां भी राममंदिर को फिर से चुनाव के केन्द्र में लाने की पूरी तैयारी जान पड़ती है। इसके  लिए आपको पिछले दिनों भाजपा के वैचारिक साथी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और विश्व हिंदू परिषद समेंत तमाम अनुसंगिक संगठनों के नेताओं के भाषणों को सुनना पड़ेगा। उदाहरण के तौर पर करीब दो दिन पहले प्रवीण तोगडिय़ा का बयान है,

जिसमें उन्होनें कहा कि केन्द्र में अपना भाई है तो मंदिर तो बन कर ही रहेगा। इस बयान के बहुत गहरे मंतव्य हैं। इससे मुस्लिम समुदाय में भय का माहौल बनाने और मंदिर समर्थकों को एकजुट करने के प्रयास के तौर पर देखा जा सकता है।

अभी तक यह टेस्ट लोकसभा चुनाव के दौरान मुजफ्फर नगर, बिहार चुनाव और काफी हद तक दिल्ली के विधान सभा चुनाव के आखिरी दिनों मेें किया जा चुका है। जिसमें से एक ही जगह यह सफल रहा। बाकी दो जगह उसे करारी शिकस्त झेलनी पड़ी। फिर भी उसके मुह में ध्रुवीकरण के सहारे जीत का खून तो एक बार लग ही चुका है।

हालांकि सिर्फ मालदा की बात करें तो वहां भाजपा या तृणमूल दोनों में से किसी को भी इस घटना से बहुत अधिक फायदा मिलते नहीं दिखाई पड़ता। क्योंकि मालदा हमेशा से ही कांग्रेस का गढ़ रहा है। लेकिन यह पासा बेहद सोच समझ कर फेंका गया है। तृणमूल या बीजेपी सिर्फ मालदा जैसे छोटे लाभ के लिए कुछ नहीं करने वाले। इसकी नजर आगामी विधानसभा चुनावों पर है।

कुल मिलाकर साल 2016-17 बेहद संवेदनशील रहने वाला है। इसलिए आम आदमी को बेहद सतर्क और संतुलित रहना होगा। कोई भी चिंगारी को शोला बना सकता है।

मालदा हो या मुजफ्फर नगर या फिर दादरी, भुगतना तो आम आदमीं को ही पड़ता है। वही जिसके साथ हम रोज उठते बैठते हैं, धर्म के नाम पर हमें उसी के खिलाफ भडक़ा दिया जाता है। हजारों साल से धर्मों को खतरे में बताया जा रहा और इसके नाम पर सत्ता के लालची खूनी खेल खेलते रहे हैं। हमें पिछली घटनाओं से सबक लेते हुए धन-बल और जाति के मुद्दे को किनारे करना होगा। अपने भावी जन प्रतिनिधियों से उनकी जीतने के बाद विकास की योजनाओं पर सवाल पूछना होगा।

बाकी चलते-चलते अदम गोंडवी की कुछ लाइनें और बात खत्म-
            ''मुफलिसों की भीड़ को गोली चलाकर भून दो

        दो कुचल बूटों से औसत आदमी की प्यास को

        मजहबी दंगों को भडक़ाकर मसीहाई करो

        हर कदम पर तोड़ दो आदमी के विश्वास को’’

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

एक नदी की सांस्कृतिक यात्रा और जीवन दर्शन का अमृत है 'सौंदर्य की नदी नर्मदा'

गड़रिये का जीवन : सरदार पूर्ण सिंह

तलवार का सिद्धांत (Doctrine of sword )

युद्धरत और धार्मिक जकड़े समाज में महिला की स्थित समझने का क्रैश कोर्स है ‘पेशेंस ऑफ स्टोन’

माचिस की तीलियां सिर्फ आग ही नहीं लगाती...

स्त्री का अपरिवर्तनशील चेहरा हुसैन की 'गज गामिनी'

ईको रूम है सोशल मीडिया, खत्म कर रहा लोकतांत्रिक सोच

महत्वाकांक्षाओं की तड़प और उसकी काव्यात्मक यात्रा

महात्मा गांधी का नेहरू को 1945 में लिखा गया पत्र और उसका जवाब

चाय की केतली