मुंशी प्रेमचंद : यथार्थ जीवन के एक रचनाकार

आज हिन्दी साहित्य जगत के अमूल्य निधि मुंशी प्रेमचंद की पुण्यतिथि के अवसर पर, उनके द्वारा मानवीयमूल्यों के ऊपर रचे गए रचना संसार की छोटी सी समीक्षा -
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असल नाम धनपत राय, हिंदी में प्रेमचंद के नाम से तो उर्दू रचना संसार में नवाब राय के नाम से लिखने वाले मुंशी प्रेम चंद प्रारंभ में वतन परस्ती से लबरेज होकर गल्प लिखते थे।

 उर्दू में उनका पहला कहानी संग्रह 'सोजे वतन' 1909 में जब आया तो अंग्रजी सरकार में हड़कंप मच गया। उसकी सारी प्रतियां जला दी गई।

लेकिन इसके बाद जो हुआ वह हिंदी साहित्य जगत के लिए मील का पत्थर साबित हो गया।

दरअसल उसके बाद हिंदी जगत को प्रेमचंद नाम का एक यथार्थवादी लेखक मिल गया। और यहां से शुरू हुई हिंदी साहित्य जगत में याथार्थ पर आधारित कहानियां और उपन्यास लिखने का सिलसिला। 'सोजे वतन' में 'दुनिया का सबसे अनमोल रतन' कहानी में उन्होनें जिस तरह से देश के लिए प्राणोत्सर्ग को प्रतिष्ठित किया है, वैसा शायद फिर कभी कोई नहीं लिखेगा।

1936 में लखनऊ में मुंशी प्रेमचंद ने प्रगतिशील लेखक संघ के प्रथम अधिवेशन को संबोधित करते हुए कहा था कि, ''साहित्य का लक्ष्य केवल महफिल सजाना या मनोरंजन का सामान जुटाना नहीं है, उसका दर्जा इतना न गिराइए। वह देश भक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई भी नहीं है, बल्कि उसके आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई है''।

प्रेमचंद नें तत्कालीन परिस्थितियों को अपनी रचनाओं का विषय बनाया, उसमें गरीब की घुटन और चुभन को शब्द दिए। उनके साहित्य को गरीब का साहित्य कहें तो गलत नहीं होगा। उन्होनें जीवन को बहुत नजदीक से देखा और जिया भी, शायद इसीलिए उनकी कहानियां समाज के चेहरे से इतनी बेरहमी पूर्वक वाकिफ कराती हैं।

प्रेमचंद का सबसे मजबूत पक्ष है, उनका जीवन एक औसत भारतीय जैसा ही होना। जैसा वह कहानियों में गढ़ते हैं उसी समाज में वे खुद भी जिंदा हैं। वे दरिद्रता में जन्में, दरिद्रता में पले और दरिद्रता से जूझते हुए समाप्त हो गए। उन्होनें अपने आप को सदा मजदूर माना, वे कहते हैं,''मैं मजूर हूं, मजदूरी किए बिना मुझे भोजन का अधिकार नहीं है''।

प्रेमचंद प्रारंभ में आदर्शवादी दिखते हैं | 'बड़े घर की बेटी', पंच परमेश्वर, उपदेश, परीक्षा और अमावस की रात जैसी कहानियों में इसे साफ तौर पर देखा जा सकता है। इनमें न्याय, कर्तव्य, त्याग जैसे आदर्शवादी मूल्यों को उन्होनें स्थापित किया है |

आगे धीरे-धीरे उनका आदर्श से मोह भंग होत हुए दिखता है। इस दौरान उन्होनें समाज के कड़वे सच को पूरी नग्रता से उजागर किया। पूस की रात, बूढ़ी काकी और ठाकुर का कुआं में तो वे इसके चरम पर जा पहुंचे हैं।
आदर्शों के प्रति उनके मोह भंग को इससे समझा जा सकता है कि, जब वे मृत्यु शैय्या पर पड़े थे तो कहानीकार जैनेन्द्र से कहते हैं, ''अब आदर्श से काम नहीं चलेगा''। यह शायद उनकी आशाओं और मजबूत इरादों के हिलने का संकेत है।

उनकी कहानियों पर विचारधाराओं का भी प्रभाव दिखता है। वे प्रारंभ में आर्यसमाज फिर गांधी वाद और बाद के दिनों में वाम पंथ से प्रभावित रहे। वे सामाजिक प्रवृत्तियों के हकीकत में उतारते तो हैं पर जितना समा पाए, ठूंसते नहीं हैं। इसीलिए सजीवता के मामले में उनका कोई सानी नहीं है। गोदान में इसे उन्होंने पराकाठा पर पहुंचा दिया है।

प्रेमचंद को अगर क्रांति नहीं समाज सुधार का समर्थक मानें तो गलत नहीं होगा। हां यह अलग बात है कि वे बाद में आदर्शवाद और सुधारवाद के प्रभाव से पूरी तरह से मुक्त रहे, गोदान और पूस की रात में यह बात दिखती है।

हिंदी साहित्य का यह यथार्थवादी प्रकाश स्तंभ आज हमारे बीच शरीर से नहीं है, पर कहानियों के माध्यम से कालजयी है। उन्होनें जो कहानियां उस समय रची उसकी प्रासंगिकता आज भी रत्ती भर कम नहीं हुइ है। उन्होनें जनवादी लेखन को जो नया आयाम दिया उसके लिए हिंदी साहित्य जगत हमेशा उनका कर्जमंद रहेगा।

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