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'फरीद' की फ़रियाद से शर्मसार इंसानियत...

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ए क और आयलन कुर्दी पिछले 13 अक्टूबर को सीरिया में हिंसा की लपटों में जला। इस बालक का नाम आयलन नहीं बल्कि फरीद था। यह चेहरा भी आम बच्चों जैसा ही था। चमकती आंखें...चेहरे पर शरारत... और कुछ नहीं कहते हुए भी बहुत कुछ कह जाने वाला चेहरा...। इतना सब सामान्य होते हुए भी वह अलग था वह 6 साल का मासूम फरीद । था तो वह बेहद मासूम, पर उसका आखिरी लफ्ज कठोर से कठोर दिल को भी पिघला गया।  Turkish photographer Osman Sagırlı took this picture at the  Atmeh refugee camp in December 2014   फरीद सऊदी अरब द्वारा गिराए जा रहे बमों से छलनी हो गया था। जिस वक्त डॉक्टर इस बात को लेकर उधेडबुन में थे कि इसे जिंदा कैसे बचाया जाए, उसी वक्त मासूम फरीदी ने डॉक्टरों से ऐसी इल्तजा की, जिससे कि दुनिया के आंखें आंसू नहीं लहू से भर गईं।  इस मासूमियत भरे सवाल को वीडियो  की शक्ल में कैद किया एक स्थानीय फोटोग्राफर ने । उन्होने उसे अपलोड करके फरीद के उस मासूम से सवाल को दुनिया के सामने रख दिया, जो सीरिया, यमन, लेबनान और पाकिस्तान सहित तमाम मुल्कों में बमों और गोलियों के बीच जीने के लिए अभिशप्त हैं। उनकी मासूमियत छिन

...और रावण फिर नहीं मरा

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आ ज सुबह से पूरे गांव दशहरा मेले के रंग में रंगा हुआ है | बच्चे-बूढ़े सब इसबार सिर घुमाने वाले रावण को देेखने को बेताब हैं | अगर कोई इससे उदासीन है तो वह मुनमुन है | वह चुपचाप घर में सुबह से ही खुटुर पुटुर कर रही है | मां पूछती है, अरे मुनमुन !मेला नहीं जाना क्या ? जाओ देख आओ इसबार रवणवा सिर घुमाएगा...|   मुनमुन ने कोई जवाब नहीं दिया और मां धीरे-धीरे बोलते हुए चली गई , यह भी अजीब लड़की है इसका न कहीं आने का मन करे न जाने का | भीड़ से इतनी नफरत इसे ... इतने में भड़ाक से दरवाजा खुला और आवाज आई,  मुनमुन चलो मेला देखने | यह मुनमुन की सबसे खास दोस्त थी रिंपा | मुनमुन ने मुह बनाते हुए कहा मै नहीं जाऊंगी तुम्हें जाना हो तो जाओ | पता नहीं कौन मरेगा इस भीड़ में | एक रावण देखने के लिए पता नही कितने रावण आएंगे... वह इतना कहकर शांत हुई ही थी कि रिंपा ने कहा अरे यार आज चल चलो फिर पता नहीं मौका मिलेगा या नहीं अगले साल शादी होने वाली है मेरी ...

शीर्षक मुक्त कविता (3)

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मैं चाहता हूं   ऐसा प्यार करना जो बंधन नहीं आजादी हो जैसे नदी करती है पानी से परिंदे करते हैं आसमान से प्यार मेरे लिए तुम्हें  उनमुक्त देखने का नाम है हों पंख इतने मजबूत कि  आसमां की बुलंदियों तक उड़ सको पैरों में हो इतनी जान कि रौंद सको ख्वाहिशों के लिए  इस धरा को मन में हो आत्मविश्वास इतना कोई ख्वाब न लगे बड़ा मेरे लिए प्यार  हवस नहीं अहसास है बस एक खूबसूरत अहसास जिसे तुमसे  बांटना चाहता हूं तुम्हारा चेहरा खिला रहे हमेशा ऐसे ही  देखना चाहता हूं बस                                                                                                     शीर्षक मुक्त कविताओं की कड़ी  -                                                                                                        पहली शीर्षक मुक्त कविता                                                                                                        दूसरी शीर्षक मुक्त कविता                                    

मुंशी प्रेमचंद : यथार्थ जीवन के एक रचनाकार

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आज हिन्दी साहित्य जगत के अमूल्य निधि मुंशी प्रेमचंद की पुण्यतिथि के अवसर पर, उनके द्वारा मानवीयमूल्यों के ऊपर रचे गए रचना संसार की छोटी सी समीक्षा - असल नाम धनपत राय, हिंदी में प्रेमचंद के नाम से तो उर्दू रचना संसार में नवाब राय के नाम से लिखने वाले मुंशी प्रेम चंद प्रारंभ में वतन परस्ती से लबरेज होकर गल्प लिखते थे।  उर्दू में उनका पहला कहानी संग्रह 'सोजे वतन' 1909 में जब आया तो अंग्रजी सरकार में हड़कंप मच गया। उसकी सारी प्रतियां जला दी गई। लेकिन इसके बाद जो हुआ वह हिंदी साहित्य जगत के लिए मील का पत्थर साबित हो गया। दरअसल उसके बाद हिंदी जगत को प्रेमचंद नाम का एक यथार्थवादी लेखक मिल गया। और यहां से शुरू हुई हिंदी साहित्य जगत में याथार्थ पर आधारित कहानियां और उपन्यास लिखने का सिलसिला। 'सोजे वतन' में 'दुनिया का सबसे अनमोल रतन' कहानी में उन्होनें जिस तरह से देश के लिए प्राणोत्सर्ग को प्रतिष्ठित किया है, वैसा शायद फिर कभी कोई नहीं लिखेगा। 1936 में लखनऊ में मुंशी प्रेमचंद ने प्रगतिशील लेखक संघ के प्रथम अधिवेशन को संबोधित करते हुए कहा था कि, 

समस्याओं के निदान का अड्डा, 'Advice Adda'

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 आजकल व्यक्ति अपनी सामाजिक जिंदगी हकीकत में कम और वर्चुअल स्पेस पर अधिक बिता रहा है। खासकर के जो नई पीढ़ी है वह इस  बात को लेकर अक्सर चर्चा में रहती है और आलोचनाओं का शिकार भी होती  है। लेकिन हकीकत इससे थोड़ा अलग है।  इस अलग हकीकत को अगर समझना है तो सोचने का नजरिया भी थोड़ हट के बनाना होगा।  अब सोचिए ऐसे में जब वह दिन के 10 घंटे इंटरनेट पर काम करने में बिताएगा तो सामाजिक हकीकत की जिंदगी में होगा या इंटरनेट की आभासी दुनिया में।  दूसरी बात उम्र बढऩे के साथ-साथ व्यक्ति की सीखने की क्षमता और इच्छा शक्ति में भी कमी आ जाती है। ऐसे में पुरानी पीढ़ी के लोग चाहकर भी उतना बेहतर तरीके से आधुनिक तकनीकों का प्रयोग नहीं कर पाते हैं। जो कुछ लोग भी ऐसा करने में सफल होते हैं सीखने के प्रति बेहद मजबूत  इरादों वाले और उत्साही होते हैं।   समस्याएं इस लिए आती हैं क्योंकि आजकल का युवा काम करता है तो आभासी दुनिया में, कुछ खरीदता बेंचता है तो आभासी दुनिया में यहां  आज-कल इलाज भी कराना हो तो आभासी दुनिया। सामने कोई नहीं मिलने वाला ।  आनंद फिल्म का एक डायलॉग है कि, '' हर आदमी