बिना शीर्षक की कविता (1)
आजादी को लेकर कविता के रूप में मैंने अपनी कुछ भावनाएं व्यक्त की हैं | तो सोचा कि यदि आजादी की कविता है तो शीर्षक में क्यों बांधें...
मै, देखना चाहता हूँ
उड़ते परिंदों की तरह
उन्मुक्त आकाश में तुम्हें
मुक्त हो तुम,
सब बन्धनों से जहां
कर सको आजाद ख्याली से सारे काम
जिसे यह लम्पट समाज
परम्परा का चोंगा पहनाकर
हर पल रोकता है |
लगा देना चाहता हूं ताला,
हर उस जुबान पर
जो कदम-कदम तुम्हें रोकती है |
मै देखना चाहता हूं,
तुम्हें ऐसा जहां बसाते हुए
जैसा तुम गढ़ना चाहती हो
बिना सदमे के, बे-झिझक, खिलखिलाते हुए |
मै, देखना चाहता हूँ
उड़ते परिंदों की तरह
उन्मुक्त आकाश में तुम्हें
मुक्त हो तुम,
सब बन्धनों से जहां
कर सको आजाद ख्याली से सारे काम
जिसे यह लम्पट समाज
परम्परा का चोंगा पहनाकर
हर पल रोकता है |
लगा देना चाहता हूं ताला,
हर उस जुबान पर
जो कदम-कदम तुम्हें रोकती है |
मै देखना चाहता हूं,
तुम्हें ऐसा जहां बसाते हुए
जैसा तुम गढ़ना चाहती हो
बिना सदमे के, बे-झिझक, खिलखिलाते हुए |
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