थोड़ी और देर
इतनी उदासी रहती है
आजकल कि सुबह भी
मुरझाई हुई लगती है
इतना सन्नाटा है
चारो तरफ जैसे अंतर्मन
की वीणा टूटी हुई लगती है
छेड़ने पर तारों से बस
आह सी निकलती है
अब तो शाम भी
मायूस सी लगती है
किसी अंजान के
जाने के गम में
सिसकते हुए
लगती है
क्यों नहीं रोक लेता
कोई रात थोड़ी और देर
मुस्कराती सुबह की
उम्मीदें बनी रह जाती
थोड़ी और देर
न छेड़ता टूटी वीणा को कोई
थोड़ी और देर
थोड़ी और देर हो जाती
शाम होने में
गम से दूर रह जाती
थोड़ी और देर
कुछ कलियां फूल बन
बिखरने से बच जाती
थोड़ी और देर
आंसू और ओस का
एकाकार बना रहता
थोड़ी और देर
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