रेल और जिंदगी...
रेल में कुछ लोगों को विरह नजर आता है और गुनगुनाते हैं " रेलिया बैरन पिया के लिए जाए रे... | लेकिन मुझे इसमें जिंदगी नजर आती है |
यह जिंदगी भी बिल्कुल इसी तरह है, कभी एकदम सीधे चली जाती है और कभी अचानक से धड़धड़ाकर ट्रैक बदल लेती है | अब तक कितनी बार ऐसे ही बदल चुकी है |
इसके ट्रैक बदलते समय लगने वाले हल्के झटके को कुछ लोग उसका डिरेल होना मान बैठते हैं, और हाय तौबा मचाने लगते हैं | कुछ ऐसे भी दिखाई पड़ते हैं जो जान बचाने के प्रयास में खुद तो चलती ट्रेन से कूदते ही हैं, साथ वाले को भी खींचना चाहते हैं |
रेल और जिंदगी में और भी समानताएं नजर आती हैं, दोनो रोज एक नई मंजिल तय करती हैं | जिसदिन रेल यह मान बैठे कि मंजिल पुरानी है तो शायद वह प्लेटफार्म ही न छोड़े | उसी तरह मुझे जिंदगी भी उसी तरह नजर आती है |
हम हर रोज आफिस जाते हैं और घर जाते हैं, लेकिन रोज कुछ नया खोजते हैं | जिस दिन गलती से भी दिमाग में यह बात आ जाती है कि यह रोज का काम है तो काम करने का मन नहीं होता |
रेल में कितने लोग सवार होते हैं और उतरते जाते हैं, लेकिन वह कभी उनके लिए अपनी मंजिल नही भूलती है |
कभी-कभी लगता है कि हमे भी रेल की तरह होना चाहिए, बस चलते रहें हर रोज नई मंजिल पर...
रेल का एक चीज और पसंद आता है, वह अपने आपको कभी बूढ़ा नहीं समझती, और न ही कभी थकती है, बस चलती जाती है अपनी अंतिम सांस तक | काश ! रेल से हम यह सीख पाते कि व्यक्ति युवा वर्षों की संख्या से नहीं, दिल में कुछ करने की तमन्नाओं से होता है |
बहुत अफसोस होता है जब हम अपने आस पास के कुछ ऐसे लोगों को पाते हैं, जो 25 बसंत ही देखे हैं और आने वाले तीसवें बसंत में बुजुर्ग मान बैठे हैं | यह लोग खुद तो मानते ही हैं, दूसरों को भी लपेटना चाहते हैं |
यह लोग दलील देते समय अपने आईकान सुपर स्टार देवानंद और अमिताभ को भी भूल जाते हैं, फौजा सिंह की बात क्या की जाय |
ऐसा नही है कि मैं निराशा में नहीं होता हूं, होता हूं पर रेल को याद करता हूं और निराशा का धूल को झाड़ फिर से खड़ा होता हूं |
मैने बहुत कम रेल यात्राएं की हैं इस पच्चीस की उम्र तक पर यह हमेशा से आकर्षित करती है | रेल में मुझे लक्ष्य पाने की ललक नजर आती है | थोड़ी देर भले हो जाए पर रास्ता नहीं भटकती |
रेल की यह खासियत काश ! हममें भी आ पाती |
काफी अच्छा लिखा है आपने ...!!
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