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मांझी : द माउंटेन मैन, निर्देशन की कमियों के पहाड़ को तोड़ते नवाज

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फिल्म : मांझी : द माउंटेन मैन निर्देशक : केतन मेहता लेखक : केतन मेहता, महेंद्र झाकर, अंजुम राजाबली कलाकार : नवाजुद्दीन सिद्दीकी, राधिका आप्टे, तिग्मांशु धूलिया, पंकज त्रिपाठी, प्रशांत नारायण, गौरव द्विवेदी, अशरफ उल हक, दीपा साही माझी द माउंटेन मैन जब से बन रही थी तब से ही इसे देखने की दो कारणों से उत्सुकता थी , पहला दशरथ माझी और दूसरा नवाजुद्दीन सिद्दकी का अभिनय | | नवाज का अभिनय हमेशा से ही आकर्षित करता है | आम दर्शक की भांति मेरी भी यह इच्छा अचानक ही रिलीज होने से पहले ही पूरी हो गई, पाइरेटेड प्रिंट देखकर | अब इसे आप अपराध भले ही कहें, जो कि है भी लेकिन जब मिल जाए और जेब में थियेटर के लिए पैसे न हों तो दिल नैतिकता को किनारे कर देता है | अब आते हैं फिल्म पर, इंटरवल के पहले यह इतनी बार फ्लैस बैक में जाती है कि दर्शक बुरी तरह कहानी को समझने में उलझ जाता है | इसके पहले मैने केतन मेहता की रंगरसिया और मंगल पांडे का मेलोड्रामा भी देखा था | रंगरसिया थोड़ी ठीक लगी थी लेकिन एक छिछलापन दिखाई दिया था | यह सतहीपन माझी में भी नजर आता है | फिल्म में निर्देशक बहुत कुछ एक साथ दिखाने क

रेल और जिंदगी...

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रेल में कुछ लोगों को विरह नजर आता है और गुनगुनाते हैं " रेलिया बैरन पिया के लिए जाए रे... | लेकिन मुझे इसमें जिंदगी नजर आती है | यह जिंदगी भी बिल्कुल इसी तरह है, कभी एकदम सीधे चली जाती है और कभी अचानक से धड़धड़ाकर ट्रैक बदल लेती है | अब तक कितनी बार ऐसे ही बदल चुकी है | इसके ट्रैक बदलते समय लगने वाले हल्के झटके को कुछ लोग उसका डिरेल होना मान बैठते हैं, और हाय तौबा मचाने लगते हैं | कुछ ऐसे भी दिखाई पड़ते हैं जो जान बचाने के प्रयास में खुद तो चलती ट्रेन से कूदते ही हैं, साथ वाले को भी खींचना चाहते हैं | रेल और जिंदगी में और भी समानताएं नजर आती हैं, दोनो रोज एक नई मंजिल तय करती हैं | जिसदिन रेल यह मान बैठे कि मंजिल पुरानी है तो शायद वह प्लेटफार्म ही न छोड़े | उसी तरह मुझे जिंदगी भी उसी तरह नजर आती है |  हम हर रोज आफिस जाते हैं और घर जाते हैं, लेकिन रोज कुछ नया खोजते हैं | जिस दिन गलती से भी दिमाग में यह बात आ जाती है कि यह रोज का काम है तो काम करने का मन नहीं होता | रेल में कितने लोग सवार होते हैं और उतरते जाते हैं, लेकिन वह कभी उनके लिए अपनी मंजिल नही भूलती ह

...और वह मुझसे बिछड़ गई

आज पूरे 6 महीने पूरे हो गए हमे अपने अजीज से बिछड़े हुए | शायद वह जिंदगी का पहला प्यार था | उसकी आंख में झांक कर दुनिया देखने में जो आनंद और सकून मिलता था वह ऐसे देखने में कहां | कई ख्वाब संजोए थे उसी के दम पर लेकिन एक पल में सब बिखर गए | इसे पढ़ने पर आपको लग रहा होगा, रही होगी कोई प्रेमिका हो गया होगा ब्रेक अप | थी तो वह मेरी प्रेमिका ही, लेकिन कोई लड़की नही | मुझे प्यार फोटोग्राफी से था | वह पहला प्यार था | हम मध्यमवर्गीय परिवार से आने वाले लोगों की कोई हॉबी नही होती क्योंकि इसकी औकात नहीं होती | यहां अक्सर हमारे जैसे लोगों के कंधे घर वालों की उम्मीदों के भार से झुकते जाते हैं | यहां छात्र जीवन में शौक जैसे शब्द की जगह नहीं होती | इसके लिए प्यार करना पड़ता है, अपने शौकिया काम से | मेरी भी हालत लगभग ऐसे ही थी, हां यह कह सकते हैं कि थोड़ी बेहतर थी | बड़ी मिन्नतों के बाद प्यार का टूल कैमरा मिल गया था | यह प्यार अभी जवान ही हो रहा था कि कैमरा एक दिन चोरी हो गया | यह सब इसलिए याद कर रहा क्योंकि आज विश्व फोटोग्राफी दिवस है | यह मेरे लिए कभी वैलेंटाईन डे से कम नहीं हुआ करता था | बस

आजादी के मायने...

बचपन में आजादी से जुड़े दिन 15 अगस्त और 26 जनवरी के दिन बड़े उल्लास मय होते थे | स्कूलों को सजाया जाता था, प्रभात फेरी निकलती थी, लम्बे-लम्बे भाषण होते थे, हर बार आजादी के लिए लहू बहाने वालों को याद किया जाता था | पहले यह सब बहुत उत्साहित करता था, लेकिन अब नहीं करता | अब सोचने पर लगता है कि तब हम सब को भगत सिंह के लहू की याद दिलाकर बस उत्तेजित किया जाता था, जबकि असल में उन्होने जिस आजादी की बात की थी वह हमसे आज भी कोसों दूर है | गोरे चेहरे वालों ने सत्ता को काले रंग वालों को दे दिया बस | समाजवाद का सुनहरा सपना जाने कहां खो गया | हम तब भी लूटे जा रहे थे, अब भी लूटे जा रहे हैं | जल, जमीन और जंगलों की लूट सतत जारी है | हम तब भी दवा, पढ़ाई और रोटी, कपड़ा जैसी मूल भूत चीजों के लिए जूझ रहे थे, वह अब भी कायम है | तो हमे आजादी किस चीज से मिली | हमें संविधान में अभिव्यक्ति की आजादी दे दी गई लेकिन हकीकत में कितनी मिली यह किसी से छिपा नही है | इसका प्रमाण पिछले कुछ वर्षों में बढ़ी पत्रकारों की हत्याएं हैं | और न जाने कितने ऐसे हैं जो भारतीय जेलों में सिर्फ इस लिए सड़ रहे हैं क्योंकि उन्होने