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जुलाई, 2015 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

*** भटके राही ***

जिंदगी का भी कमाल है कुछ का सफर भी बेमिशाल है निकले थे किसी सफर पर, पर पोस्टर ब्वाय बन कर रह गए कुछ स्टेशनों पर चिपक गए कुछ टैक्सी स्टैंडों पर जो बचे बचे वे बिजली खम्भों पर कुछ ऐसे भी हुए जो ट्रेनों में चिपक कर सफर करते रह गए कुछ अभी अभी चिपके  हैं, कुछ फीके हो चुके हैं जैसे घर वालों की उम्मीदें कुछ हवाओं में फड़फड़ा कर इशारे कर रहे हैं जैसे हर आने जाने वाले को बुला रहे हैं जैसे लोगों से अपने ही  घर का पता पूछ रहे है दो चार देख कर ठिठकते हैं इशारों को समझते हुए पास पहुंचते हैं वर्षों पहले सफर पर निकले अपनों से मिलने को आंखें चमकती हैं नही होता कोई अपना तो पनियाई आंखें अगले किसी इश्तहार पर जा टिकती हैं स्पर्धा यहां भी कम नहीं गुम होने वालो की तादात बढ़ रही दिन दूनी रात चौगुनी जाने कहां जाते हैं ये विस्मृत यात्री एक के ऊपर एक चढ़ रहे जैसे आए थे पैसेंजर ट्रेनों में ये सफर के अंजान राही कर रहे कुछ इस तरह अपनी मुनादी कहते हैं यहां कुर्सी की मार है जल्द हवा, पानी में गलो नहीं तो कोई फाड़ देगा या फिर कोई नया पोस्टर ब्वाय ऊपर चिपक गला घोंट देगा कुछ रंगी