एक अनोखा रिश्ता पेड़ से



पेड़ देखने में जितना जड़ लगता है वह उतनी ही गहराई से हमारी चेतना में समाया होता है। जिसने अपना बचपन गांव में गुजारा होगा वही महसूस कर सकता हैं कि पेड़ों से भी दादा जैसा रिश्ता कैसे बनता है। पेड़ हमारे दुखः सुख में हमेशा साथ होता है। रोज उसकी चर्चा के बिना दिन पूरा नहीं होता है।
एक पेड़ हमारी भी स्मृति में भी है जो रह-रह कर अपनी दस्तक देता रहता है वह हमारे  लिए दादा जी से कम नहीं था। शायद वह भी उनके  साथ ही बड़ा हुआ था। उसका मोटा तना भी उतना ही खुरदरा लगता था जितना कि दादा जी के शरीर पर झुर्ररियां। लेकिन चुभता बिल्कुल नहीं था, चाहे हम जितना भी लिपट जाएं।

 मानों वह भी हमारे लिपटने का इंतजार ही कर रहा हो। जमीन से बाहर निकली हुई जड़ें जैसे दादा जी के पैरों और हाथों की शिरायें हों और विशाल भी उतना ही जितना कि उनका हृदय। हमारे यहां गांवों में व्यक्ति की तरह पेडों के नाम भी रखे जाते हैं। इसी परंपरा अनुसार उस ममतामयी छाया वाले का नाम भी रखा गया था ‘‘लोडिय़हवा‘‘। यह नाम रखने का कारण मैं आज तक नहीं जान पाया। 
‘‘लोडि़यहवा‘‘ के नीचे बचपन से ही हम खेल कर बड़े हुए, उसकी पत्तियों से मैने बैल बनाए, गुठलियों से कितनों के शादी की दिशा बताई। आम खाने के बाद गुठली को किसुलिया-किसुलिया फलां आदमी के बिआह कहां होई,‘ कह कर उछालते ही हम भी उछल पड़ते थे। 
पूरे जवार (आस-पास के गांव) में चाहे एक भी आम का फल न लगा हो लेकिन लोडिय़हवा में हम सब के जी भर कर खाने भर का तो हो ही जाता था। हम सब का भरोसा लोडि़यहवा पर एक दम वैसा ही था जैसा कि दादा जी बाजार जाएं और खुरमा न ले कर आए, हो नही सकता। 

गर्मी के दिनों में दिन भर उसकी डालियों को टुकटुकी लगायेे ताकते रहते थे कि अब चुटकाइल (गिलहरी) अब  आम गिराए-अब आम गिराए। चाहे एक भी आम शाम तक न गिरे लेकिन मजाल था कि कोई लग्गी से कोई डालियों को झकझोर दे। नाम लेते ही दादा जी ऐसे बिफर पड़ते थे मानों उनके पैरों में ही कोई लग्गी फंसा रहा हो। 
शायद दादा जी को लोडि़यहवा से इतनी आत्मियता इस लिए रही होगी क्योंकि दोनों ने अपनी जिंदगी का सफर एक साथ ही शुरू किया रहा होगा। उन्होने सींच-सींच कर उस अपने बचपन के लंगोटिया यार को बड़ा किया होगा। और धीरे-धीरे उनकी हम उम्र के लोग भी कम हो रहे थे जिनकी कमी यह पूरा कर रहा था।
लेकिन आदमी का लालच चाहे जो न करा दे । लालच के आगे किसी की भावनाएं, संवेदनाएं सब कुछ व्यर्थ हो जाती हैं। एक दिन कुछ पैसे की आवश्यकता पड़ी और चल गया आरा उस पर। उसे बेंच दिया गया । 
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चाचा लोगों ने एक बार भी ख्याल नहीं किया कि दादा जी से पूंछ लेना चाहिए। उस दिन दादा जी को सबसे उदास देखा। जैसे-जैसे  लोडि़यहवा पर आरे और कुल्हाड़े चल रहे थे वैसे वैसे उनका चेहरा भी पीला पड़ता जा रहा था। मानों ये पेड़ पर नहीं उनके ही शरीर पर चल रहा हो। 
मैं भी उस दिन बहुत निराश था, आखिर क्यों न होता, कभी उसके नीचे  खेला करता था, वह हमारे दूसरे दादा जी जैसा था, उसकी छाया में मैं पला था।  आज सबकुछ कुछ ही पलों में अतीत होने वाला था। उस पर बने घोंसलों से पक्षी ऐसे फड़फड़ा कर कोलाहल करते हुए उड़ रहें थे जैसे कोई गांव उजाड़ा जा रहा हो और चारो तरफ मची हो चीख-पुकार। इन पक्षियों का विकल शोर मेरे दर्द को और भी कुरेद रहा था।
उसके उजड़ने के बाद मानों कोई चला गया हो घर से। पंछियों के चले जाने के कारण सन्नाटा रहने लगा। नही तो रोज ही सुबह सुबह कबूतरों की गुटर-गूं और मोर की आवाज से नींद खुलती थी। बहुत दिनों तक याद दिलाने के लिए उसकी जड़ बची थी जिस पर दादा जी बैठा करते थे और कटी हुई जड़ में उभरी हुई रेखाऐं गिना करते थे। जैसे अपनी भी उम्र गिन रहे हों। लेकिन एक दिन उसमें भी लालच का कीड़ा घुसा और उसे भी खत्म कर दिया गया। अब उनके पास उस अजीज यार को याद करने का कुछ जरिया भी नही रह गया।
 जिन्दगी के इस अहम यार के जाने के बाद वो भी एक दिन अपनी वात्सल्य छाया को समेट कर दुनिया से कहीं दूर यात्रा पर निकल पड़े। 
जीवन के दो विशाल वृक्षों के जाने के बाद मुझे अहसास हुआ कि कितना  अटूट रिश्ता होता है पेड़ और आदमी का। काश! न कटा होता लोडि़यहवा तो शायद कुछ दिन दोनों की छाया हमें कुछ दिन और मिल पाती, हमारी स्मृति के खजाने में कुछ यादों के मोती और भी जुड़ पातें।

यायावर प्रवीण

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