गाँव की याद...
जब भी चाँद देखता हूँ गाँव की याद आती है
वो बांस की ऊँची फुनगी के ऊपर उगे चाँद की याद
मन में शीतलता भर जाती है
बहुत दिनों से देखा नहीं फिर भी
हर रात दूधिये रोशानी में नहाए
गाँव की याद सताती है
जब से आया हूँ शहर में
रोज सोचता हूँ आज चाँद देखूंग
पर हर रोज तमन्ना, तमन्ना ही रह जाती है
पर हर रोज तमन्ना, तमन्ना ही रह जाती है
वह सांझ का सूरज, सुबह की लालिमा
मुझको बहुत लुभाती है
बारिस की बूंदे, मिट्टी की खुशबू
मुझको बहुत ललचाती हैं
मन करता है दौड़ लगा आऊँ बाहें फैलाए
ओस से गदगद मेड़ो पर
जैसे गेहूं की बालियाँ भी मेरे लिए सूख कर पीली हुई जाती हैं
पकी फसलों की स्वर्णिम आभा बार बार
मुझे गावं की ओर खींचे जाती है
टेसू के फूलों की छाती जब लाली
जैसे पूरे जंगल में आ जाती दिवाली
लद जाती बौरों से अमियों की डाली
बजने लगती है मौसम में खुशियों की थाली
कितना खुशगवार होती है इस मौसम में गाँव की गलियाँ
छा जाती है हरियाली, कूकने लगती है कोयल
महकने लगती है फूलों से बगिया
इन सब की यादें छीन लेती है निदिया
दुनिया से बराबरी के दौड़ में
गाँव की महक दूर कहीं छूट गई
इस चकाचौंध भरे कंक्रीट के जंगल में
छोटी छोटी खुशियाँ जानें कहाँ खो गई
रही तो मेट्रो की इस आधी रात में
कुछ सुनहरी यादें और आंसुओ की लड़ी शेष रह गई
यायावर
फोटो : Praveen Singh Photography
बिल्कुल सच ही ही लिखा है आपने शहर की जिंदगी मे तो चांद तारे भी देखने को नसीब नही होते
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