हार नहीं मानूंगा

हर पल ख्वाबों के घरौंदे बनाता हूं,
कोई आके मिटा जाता है,
मैं बेबस आंसू बहाता हूं,
भीगी पलकें लेकर फिर से
एक नया घरौंदा बनाता हूं,
बस यही उम्मीद लिए जिए जाता हूं,
शायद अबकी बार इन्हें हकीकत में बदल पाऊं |
कभी कभी निराशा के घने अंधेरे से
खुद को घिरा पाता हूं,
पर फिर से एक नया
आशा का दीप जलाता हूं,
आशा और निराशा के इस आंख मिचौली में
कुछ पल ठहरता हूं 
और फिर दो पग आगे बढ़ जाता हूं ,
बस कुछ यूं ही अनवरत चलते जाता हूं |
मंजिल किसी क्षितिज के छोरों जैसी लगती है,
दिखती पास, पर दूर खिसकते लगती है,
जिंदगी, हकीकत और मरीचिका की
आंख मिचौनी लगती है |
कभी-कभी बैठ जाता हूं थक हार कर,
लेकिन यह मत समझना
मैं बैठा हूं मंजिल को नामुंकिन मान कर,
मैं खड़ा होऊंगा बार-बार,
चलूंगा सांसों की अंतिम डोर तक
मंजिल तो मिल ही जायेगी
जब चलूंगा क्षितिज के आखिरी छोर तक |
मेरा खुद से वादा है,
अब ख्वाबों के महल रेत नहीं,
चट्टानों के बनाऊंगा,
देखता हूं फिर कौन कहता है, बिगाड़ जाऊंगा,
हर पल एक नया ख्वाब सजाऊंगा,
मैं सफर में रुकूंगा, थकूंगा,
लेकिन हार नहीं मानूंगा,
चलता ही जाऊंगा
चलता ही जाऊंगा ||
यायावर प्रवीण

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