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अप्रैल, 2015 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

एक अनोखा रिश्ता पेड़ से

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पेड़ देखने में जितना जड़ लगता है वह उतनी ही गहराई से हमारी चेतना में समाया होता है। जिसने अपना बचपन गांव में गुजारा होगा वही महसूस कर सकता हैं कि पेड़ों से भी दादा जैसा रिश्ता कैसे बनता है। पेड़ हमारे दुखः सुख में हमेशा साथ होता है। रोज उसकी चर्चा के बिना दिन पूरा नहीं होता है। एक पेड़ हमारी भी स्मृति में भी है जो रह-रह कर अपनी दस्तक देता रहता है वह हमारे   लिए दादा जी से कम नहीं था। शायद वह भी उनके   साथ ही बड़ा हुआ था। उसका मोटा तना भी उतना ही खुरदरा लगता था जितना कि दादा जी के शरीर पर झुर्ररियां। लेकिन चुभता बिल्कुल नहीं था , चाहे हम जितना भी लिपट जाएं।  मानों वह भी हमारे लिपटने का इंतजार ही कर रहा हो। जमीन से बाहर निकली हुई जड़ें जैसे दादा जी के पैरों और हाथों की शिरायें हों और विशाल भी उतना ही जितना कि उनका हृदय। हमारे यहां गांवों में व्यक्ति की तरह पेडों के नाम भी रखे जाते हैं। इसी परंपरा अनुसार उस ममतामयी छाया वाले का नाम भी रखा गया था ‘‘ लोडिय़हवा ‘‘ । यह नाम रखने का कारण मैं आज तक नहीं जान पाया।  ‘‘ लोडि़यहवा ‘‘ के नीचे बचपन से ही हम खेल कर बड़े हुए , उसकी पत्तिय

जिन्होने समाजवादी गणतंत्र का स्वप्न देखा

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तीन मार्च 1931 को भगत सिंह ने जेल विभाग के दो  बदामी कागज के टुकड़ों पर जो स्पष्टतया उन्हें किसी बार्डर की सहानुभूति से मिले थे   पंजाब के गर्वनर को एक चुनौती पूर्ण संदेश लिखा और उसे उसे उन्होने चोरी से बाहर भेजा। सेवा में          गर्वनर पंजाब महोदय                       यथोचित सम्मान के साथ हम निम्नांकित तथ्य आपके सामने प्रस्तुत करना चाहते हैं ।     कि भारत में ब्रिटिस सरकार के प्रधान वाइसराय महोदय द्वारा लागू किए स्पेशल एस.सी.सी. के अन्र्तगत निर्मित विशेष अदालत द्वारा 7 अक्टूबर 1930 को हम पर दोष लगाया गया था कि हमने इंग्लैंड के शासक महाराज जार्ज के विरुद्ध युध्द का संचालन किया है। न्यायालय की उक्त तजबीजों में दो चीजें पहले ही मान ली गई हैं: प्रथम तो यह कि भारत तथा इग्लैंड के बीच युध्द की स्थिति है और दूसरा यह कि हमने वस्तुतः युध्द में भाग लिया है और इसलिए हम युध्द बंदी के रूप में हैं । दूसरी पूर्व मान्यता से थोड़ी सी मिथ्या प्रशंसा सी ज्ञात होती है किन्तु फिर भी उससे सहमत होने की आकांक्षा प्रतिरोध करने को जी नहीं चाहता । युध्द की स्थि

पहचान क्यों मिटाएं...

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        हर शहर की अपनी एक सांस्कृतिक विरासत होती है जिस पर वहां के लोग गर्व करते हैं। लेकिन जब इसे धीरे-धीरे मिटा दिया जाता है तो उस शहर की आत्मा भी एक दिन मर  जाती है। बचता है तो बस शोर और इमारतों का ढ़ांचा। पिछले साल हम भी मित्रों के साथ जा पहुंचे आगरा। आगरा देखने की चाहत तब से हिलोरे मार रही थी जब से मैं इतिहास समझने लायक हुआ। मन में बड़ा उत्साह था कि कैसी होगी ताज नगरी , क्या जिस आगरा को अकबर और शाहजहां ने सपनों की भांति संवारा था उस शहर में उनकी भी कोई पहचान होगी। इन सब सवालों में उलझा हुआ पहुंच गया आगरे का लालकिला देखने। लेकिन दीदार-ए-किला के पहले ही जो कुछ मैने देखा वह बिल्कुल अप्रत्यासित और बेहद चौंकाने वाला था। किले के ठीक सामने जो मूर्ति लगी थी अकबर या शहजहां की नहीं शिवाजी की थी। माना कि शिवाजी ने आगरा विजय किया था लेकिन क्या मुगल सल्तनत के योगदान को भूल जाना चाहिए। मुगलों ने हमें विश्व प्रसिध्द स्थापत्य कला दी। आज हम जिस ताज पर इतराते हैं वह भी उनकी ही देन है जो कि विश्व मानचित्र पर आगरा की भी एक पहचान स्थापित करता है। हम बड़ी आसानी से अपने अतीत को

गाँव की याद...

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मुझे शहर की जिंदगी रास नहीं आती है ,  जब भी चाँद  देखता हूँ  गाँव की याद आती है  वो बांस की ऊँची  फुनगी के ऊपर उगे चाँद की याद  मन में शीतलता भर जाती है  बहुत दिनों से देखा नहीं फिर भी  हर रात दूधिये रोशानी में नहाए  गाँव की याद सताती है  जब से आया हूँ शहर में  रोज सोचता हूँ आज चाँद देखूंग पर हर रोज तमन्ना, तमन्ना ही रह जाती है  वह सांझ का सूरज, सुबह की लालिमा                         मुझको बहुत लुभाती है  बारिस की बूंदे, मिट्टी की खुशबू  मुझको बहुत ललचाती हैं मन करता है दौड़ लगा आऊँ बाहें फैलाए  ओस से गदगद मेड़ो पर  खेतों की पगडंडियां जैसे हर पल मुझे बुलाती हैं  जैसे गेहूं की बालियाँ भी मेरे लिए सूख कर पीली हुई जाती हैं पकी फसलों की स्वर्णिम आभा बार बार  मुझे गावं की ओर खींचे जाती है टेसू के फूलों की छाती  जब लाली  जैसे पूरे जंगल में आ जाती दिवाली  लद जाती बौरों से अमियों की डाली बजने लगती है मौसम में खुशियों की थाली  कितना खुशगवार होती है इस मौसम में  गाँव की गलियाँ  छा जाती है  हरियाली, कूकने लगती है कोयल  महकने लगती है फूलों स

फेसबुक शहर : आधी रात के बाद

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फेसबुक शहर में जलने वाली हरी बत्तियां वैसे तो हमेशा से ही बात-चीत के लिए तैयार मित्रों की उपलब्धता ही बताती हैं, लेकिन जब ये बत्तियां आधी रात के बाद जलती हैं तो कहानी कुछ और ही होती है | आधी रात के बाद चमक रही इन बत्तियों के पीछे होता है कोई चांद सा प्रोफाईल पिक्चर वाला शख्स | जिसका हो रहा होता है इंतजार | फेसबुक शहर में हुआ प्यार भी इस शहर की तरह नायाब ही होता है | इंतजार करने वाले जोड़े को अक्सर यह बात पता होती है कि वे कभी प्रोफाईल से आगे रियल में दीदार नहीं कर सकेंगे फिर भी करते हैं रोज इंतजार | शायद यह प्यार चीज ही ऐसा है जो करवाता है  इंतजार और बस इंतजार चाहे यह दिल्ली- नोयडा जैसे शहर में हुआ हो या फेसबुक पर | इस फेसबुक शहर में आधी रात को हरी बत्तियां जलने के पीछे एक और कारण है वह है इस शहर के साठ से सत्तर साल के बाशिंदे , इनमें कुछ लोग ७० की उम्र में तलाश रहे होते हैं बचपन तो कुछ लोग फिर से जवानी के दिन, इसी चक्कर में ये बेचारे फुदकते रहते हैं एक प्रोफाईल से दूसरी प्रोफाईल , कभी-कभी तो रात गुजर जाती है | यह फेसबुक शहर युवा और बुजुर्ग में भेदभाव नहीं करता और न ही आधी र

सत्ता मद आ घेरे तो सब किये-कराये पर झाडू फिरे

कहते हैं न किश्मत और लोकतंत्र में जनता, सबको दो बार मौके देती है, भुना सको तो भुना लो | आम आदमी पार्टी को मौके किश्मत ने नहीं जनता ने दिया, जिसके कारण तीन साल पुरानी पार्टी और पिछले बरस 49 दिनों  के सत्ता के अनुभव को लेकर एक बार फिर से इसने सत्ता में अपने 49 दिनों को पूरा कर लिया | जब विगत साल  जब केजरीवाल ने सत्ता को ठोकर मारी थी तो राजनीतिक गलियारों से लेकर टी.वी. चैनलों के चकल्लस भरे डिबेटों में आम आदमी पार्टी का मजाक उड़ाया गया | किसी ने कहा झाड़ू 49 दिन ही चलता है तो किसी ने केजरी को भगोड़ा कहकर उपहास उड़ाया, लेकिन दिल्ली विधान सभा के नतीजों ने सबकी सिट्टी पिट्टी गुम कर दी | अगर पिछले 49 दिनों और अब के 49 दिनों की तूलना करें तो पार्टी से लेकर  केजरीवाल और फिर जन आकांक्षाओं तक में बहुत फर्क आ गया है | जहां पिछली बार "आप" के पास अल्पमत में होने का बहाना था वहीं अब तो प्रचंड बहुमत है | पिछले बार की अपेक्षा यह 49 दिन व्यवस्थित रहा, इस बार केजरीवाल ने बात बात पर धरने पर बैठने और मेट्रो में यात्रा करने या बड़े बंगले न लेने जैसे दिखावटीपन से दूर रहे | इसके कारण उन्होने प्रशासन

बेदर्द बारिस

शहरियों के लिए मौसम रोमांस का आया है, लेकिन गांव के किसानों पर कहर बन के ढ़ाया है, धरती की गोद में लेटी फसलें देखकर, किसानों के दिल टूटने का मौसम आया है, इस बेदर्द बारिस नें कर्ज में डूबे जाने कितनों को फांसी पर लटकाया है, इसनें कईयों के हो रही बंजर राजनीतिक भूमि को फिर से उपजाऊ बनाया है, हमनें हर सुबह अखबार को अन्नदाता की मौतों से रंगा पाया है |

हार नहीं मानूंगा

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हर पल ख्वाबों के घरौंदे बनाता हूं, कोई आके मिटा जाता है, मैं बेबस आंसू बहाता हूं, भीगी पलकें लेकर फिर से एक नया घरौंदा बनाता हूं, बस यही उम्मीद लिए जिए जाता हूं, शायद अबकी बार इन्हें हकीकत में बदल पाऊं | कभी कभी निराशा के घने अंधेरे से खुद को घिरा पाता हूं, पर फिर से एक नया आशा का दीप जलाता हूं, आशा और निराशा के इस आंख मिचौली में कुछ पल ठहरता हूं  और फिर दो पग आगे बढ़ जाता हूं , बस कुछ यूं ही अनवरत चलते जाता हूं | मंजिल किसी क्षितिज के छोरों जैसी लगती है, दिखती पास, पर दूर खिसकते लगती है, जिंदगी, हकीकत और मरीचिका की आंख मिचौनी लगती है | कभी-कभी बैठ जाता हूं थक हार कर, लेकिन यह मत समझना मैं बैठा हूं मंजिल को नामुंकिन मान कर, मैं खड़ा होऊंगा बार-बार, चलूंगा सांसों की अंतिम डोर तक मंजिल तो मिल ही जायेगी जब चलूंगा क्षितिज के आखिरी छोर तक | मेरा खुद से वादा है, अब ख्वाबों के महल रेत नहीं, चट्टानों के बनाऊंगा, देखता हूं फिर कौन कहता है, बिगाड़ जाऊंगा, हर पल एक नया ख्वाब सजाऊंगा, मैं सफर में रुकूंगा, थकूंगा, लेकिन हार नहीं मानूंगा, चलता ही जाऊंगा चलता