एक अनोखा रिश्ता पेड़ से
पेड़ देखने में जितना जड़ लगता है वह उतनी ही गहराई से हमारी चेतना में समाया होता है। जिसने अपना बचपन गांव में गुजारा होगा वही महसूस कर सकता हैं कि पेड़ों से भी दादा जैसा रिश्ता कैसे बनता है। पेड़ हमारे दुखः सुख में हमेशा साथ होता है। रोज उसकी चर्चा के बिना दिन पूरा नहीं होता है। एक पेड़ हमारी भी स्मृति में भी है जो रह-रह कर अपनी दस्तक देता रहता है वह हमारे लिए दादा जी से कम नहीं था। शायद वह भी उनके साथ ही बड़ा हुआ था। उसका मोटा तना भी उतना ही खुरदरा लगता था जितना कि दादा जी के शरीर पर झुर्ररियां। लेकिन चुभता बिल्कुल नहीं था , चाहे हम जितना भी लिपट जाएं। मानों वह भी हमारे लिपटने का इंतजार ही कर रहा हो। जमीन से बाहर निकली हुई जड़ें जैसे दादा जी के पैरों और हाथों की शिरायें हों और विशाल भी उतना ही जितना कि उनका हृदय। हमारे यहां गांवों में व्यक्ति की तरह पेडों के नाम भी रखे जाते हैं। इसी परंपरा अनुसार उस ममतामयी छाया वाले का नाम भी रखा गया था ‘‘ लोडिय़हवा ‘‘ । यह नाम रखने का कारण मैं आज तक नहीं जान पाया। ‘‘ लोडि़यहवा ‘‘ के नीचे बचपन से ही हम खेल कर बड़े हुए , उसकी पत्तिय