स्त्री : स्वयं को पहचान

हाय रे स्त्री ! तेरा  कोई वजूद भी है ?
तू मां है, बेटी है, पत्नी, बहन सब है,
आंखों में पानी दिलों में सब्र है,
पर मुझे बता तू इंसान कब है |

स्वर्णिम बचपन बीता तेरा बेटी बन कर ,
उन्मुक्त गगन में उड़ने का पल बीता पत्नी और मां बन कर |

इतनी सारी जिम्मेदारियों के बोझ से तेरी कमर झुक गई,
परिवार को उबारते-उबारते जानें कहां खुद ही खो गई,
अलग-अलग भूमिकायें निभाते हुए खुद के स्व को भूल गई |

तू करूणा की सागर है, प्रचंड अग्नि की ज्वाला है,
तू वह मीरा है जो पीती दुख का हाला है,
फिर खुद को क्यों तुच्छ समझती है |

अभी भी वक्त है जाग जा रे पगली,
छा रही क्षितिज पर तेरे विहान की लाली |

21वीं सदी का सूरज तेरी बाट जोह रहा है,
आ संभाल नई भूमिका, विश्व तेरा इंतजार कर रहा है |

यह पुरुषों की भीड़ आसानी से नहीं आने देगी आगे,
मार एक जोर का धक्का निकल जा सबसे आगे |

हे स्त्री एक बार तू स्वयं को पहचान ले,
फिर हर वह मंजिल तेरे कदमों में जिसे तू फतह करने की ठान ले |

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