एकांत की तलाश में एक दिन

मै  भटकता हुआ एकांत की तलाश में, रोज ढ़ूढकर अंधेरा मै जा बैठता पास के पार्क में, 
 शायद एकांत मिल जाय इस प्रयास में |
लेकिन इस हर बार मैं खुद से बात करने लगता, बैठे बैठे पार्क की बेंचों पर ही दुनियावी समस्याओं में उलझनें लगता | 
 एक दिन मेरे दिमाग मे ख्याल पनपा कहीं मै दार्शनिक बनने की राह पर तो नहीं , 
इस ख्याल के आते ही मेरी तंद्रा टूटी, मैं चौंक उठा और कहा नहीं नहीं मैं पागल नहीं हो रहा 
इस सच्चाइ को परखने के लिए मै गला फाड़ के चिल्लाया और सिर को कई बार इधर उधर हिलाया | 
तब तक एक बच्चे नें अपने पिता जी से पूछा वह आदमी क्यों चिल्लाया, 
प्रश्न से पहले ही उत्तर आया,
चलो भाग चलो यह आदमीं है पगलाया |
इन लफ्जों के कान से टकराते ही मेरा होश ठिकाने आया 
मैने कहा अब निकल लो बेटा अभी तो सिर्फ पागल कहलाये, थोड़ी देर बाद कहीं बच्चे ईंट पत्थर भी न बजायें |
यही सोचता, हांफता डांफता घर आ गया,
एकांत अंधेरे में नहीं खुद के भीतर होने का अहसास जाग गया 
लेकिन अब भी पार्क के नाम पर कांपता है मन, कहीं  बच्चे पागल समझ शुरू ना हो जायें दनादन ||

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